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तारकासुर और कुमार कार्तिकेय का युद्ध

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मैं आपको तारकासुर और पार्वती नंदन कुमार कार्तिकेय की एक ऐसी कथा के बारे में बताने जा रहा हूँ जिसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। स्कन्द पुराण के अनुसार देवि सती के अपने पिता के यज्ञ की अग्नि में भस्म हो जाने के बाद तारकासुर के वध के लिए ही भगवान शिव ने ना चाहते हुए भी देवताओं के अनुरोध पर पर्वतराज हिमवान की पुत्री देवी पार्वती से विवाह किया था। क्यूंकि तारकासुर को यह वरदान मिला था की उसकी मृत्यु भगवान शिव के पुत्र के हाथ से ही होगी। तो आये जानते हैं ये सम्पूर्ण कथा –

स्कंदपुराण की कथा के अनुसार दक्षकुमारी देवी सती जब अपने पिता के यज्ञ में अंतर्ध्यान हो गयी तब भगवान शंकर भृंगी और नंदी के साथ हिमालय पर्वत पर तपस्या में लीन हो गए। उधर असुरलोक में उसी समय नमुचि के पुत्र तारकासुर अपनी घोर तपस्या से ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी उस पर प्रसन्न होकर प्रकट हुए और बोले -वत्स तुम कोई वर मांगो। ब्रह्माजी की यह बात सुनकर तारकासुर बोला-प्रभु यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे अजर-अमर और अजय बना दीजिये। उसके बाद ब्रह्मा जी ने कहा -तुम क्या यहाँ कोई अमर नहीं हो सकता क्यूंकि इस संसार में जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु अटल है। ब्रह्मा के मुख से ये बाते सुनने के बाद तारकासुर बोला-प्रभु तब मुझे वर दीजिये की मुझे शिवजी के पुत्र के आलावा कोई भी नहीं मार सके और मैं अजय रहूं। उसके बाद ब्रह्माजी तथास्तु कहकर वहां से अंतर्ध्यान हो गए।आपको बता दूँ की तारकासुर ने ऐसा वरदान इसलिए माँगा क्यूंकि वह जानता था की देवी सति के भस्म हो जाने के बाद शिव कभी भी विवाह नहीं करेंगे और जब वो विवाह नहीं करेंगे तो उनको पुत्र कहाँ से होगा। लेकिन वह यह नहीं जानता था की समय आने पर उसकी भी मृत्यु अवश्य होगी।

इधर ब्रह्मा जी से वरदान मिलने के बाद तारकासुर और भी बलवान हो गया। पाताललोक और पृथ्वीलोक को अपने अधिपत्य में करने के बाद तारकासुर ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया। लेकिन देवताओं ने राजा मुचुकुन्द का सहारा लेकर तारकासुर को परास्त कर दिया । परन्तु तारकासुर बार-बार देवलोक पर आक्रमण करता रहा और अंत में देवलोक को भी अपने अधीन कर लिया । तारकासुर के हाथों परास्त होने के बाद देवतागण ब्रह्मलोक पहुंचे और ब्रह्मा जी से बोले हे प्रभो आप तारकासुर से हमारी रक्षा करें। ठीक उसी समय आकाशवाणी हुई देवताओं ! तुम जीतनी जल्दी हो पर्वतराज हिमालय के पास जाओ वहीँ तुम्हारी समस्या का समाधान कर सकते है।आकाशवाणी सुनकर सभी देवताओं को बड़ा ही आश्चर्य हुआ।

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सभी देवता वृहस्पति देव के नेतृत्व में पर्वतराज हिमालय के पास पहुंचे। फिर उन्होंने हिमालय से कहा महाभाग हिमालय तुम समस्त पर्वतों के स्वामी हो,यक्ष और गन्धर्व तुम्हारा सेवम करते हैं,हम तुमसे कुछ निवेदन करने आये है,तुम्हे देवताओं की बात माननी चाहिए। तब पर्वत श्रेष्ठ हिमवान ने हंसते हुए कहा हे डिवॉन एक तो मैं अचल हूँ,चल-फिर नहीं सकता,ऐसी दशा में मैं आप लोगों के किस काम आ सकता हूँ।तब देवताओं ने कहा की तारकासुर के वध के लिए तुम ही देवताओं की मदद कर सकते हो। यह सुनकर हिमालय ने ने कहा की यदि तारकासुर के संहार में मेरी सहायता आवश्यक है,तो मैं पूछता हूँ,किस उपाय से आपलोग तारकासुर का वध करना चाहते हैं,वह शीघ्र बतलायें,क्यूंकि वह कार्य तो मेरा ही है। तब देवताओं ने आकाशवाणी द्वारा कही हुई सब बातें कह सुनाई। सुनकर हिमवान ने कहा –जब शिवजी के बुद्धिमान पुत्र द्वारा ही तारकासुर का वध होने वाला है,तब देवताओं के सब कार्य शुभ हो और आकाशवाणी कही हुई यह बात सच निकले। इसके लिए आपलोगों को विशेष यत्न करना चाहिए।

फिर देवताओं ने कहा गिरिराज आप देवताओं का कार्य सिद्ध करने के उद्देश्य से भगवान शंकर के विवाह के लिए स्वंय ही एक कन्या उत्पन्न करें। यह सुन हिमवान अपनी पत्नी मैना से बोले सुमुखि तुम्हे एक श्रेष्ठ कन्या उत्पन्न करनी चाहिए। यह सुनकर मेना ने हँसते हुए कहा स्वामी मैंने आपकी बात सुन ली,परन्तु कन्या स्त्रियों को शोक में डालने वाली होती है,अतः इस विषय में दीर्घकाल तक विचार करके आपको अपनी बुद्धि से जो हितकर प्रतीत हो यह बताएं। अपनी प्रियतमा मेना की यह बात सुनकर हिमवान ने कहा देवी ! जिस प्रकार से दूसरों के जीवन की रक्षा हो,परोपकारी पुरुषों को यही करना चाहिए। इस प्रकार पति की प्रेरणा पाकर पर्वतों की रानी मेना ने बड़ी प्रसन्तापूर्वक साथ अपने गर्भ में कन्या को धारण किया। कुछ समय के बाद मेना के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई,जो गिरिजा नाम से प्रसिद्ध हुई। सब को सुख देने वाली उस देवी के प्रकट होने पर देवताओं के नगाड़े बज उठे। अप्सराएं नृत्य करने लगी। गंधर्वराज गाने तथा सिद्धचारण स्तुति करने लगे। उस समय देवताओं ने फूलों की बड़ी भारी वर्षा की। सम्पूर्ण त्रिलोकी में प्रसन्नता छा गयी। महासती गिरिजा का जब जन्म हुआ,उस समय दैत्यों के मन में भय समां गया और देवता, महर्षि, चारण तथा सिद्धगण बड़े आनंद को प्राप्त हुए।

उधर जब गिरिजा आठ वर्ष की हो गयी तब एक दिन हिमवान अपनी पुत्री गिरिजा को भगवान शिव से मिलाने ले गए। भगवान शिव उस समय हिमालय की कंदराओं में अपने पार्षदों से घिरे हुए तपस्या में लीन थे। वहां पहुंचकर हिमवान ने मस्तक झुकाकर शिव जी को प्रणाम किया। और बोले हे प्रभु आप मुझे इस कन्या के साथ प्रतिदिन अपने दर्शन के लिए आने की आज्ञा दें। परन्तु भगवान शिव ने आज्ञा देने से मना कर दिया।लेकिन देवी गिरजा के बार-बार अनुरोध को वो ठुकरा ना सके और प्रतिदिन अपने दर्शन के लिए आने की आज्ञा दी। अब वे प्रतिदिन अपनी पुत्री के साथ उनका दर्शन करने लगे। इस प्रकार भगवान शिव की उपासना करते हुए पुत्री और पिता का कुछ समय व्यतीत हो गया। परन्तु फिर भी देवाधि देव महादेव अपनी तपस्या में लीन थे। यह देखकर देवतागण चिंतित हो उठे की भोलेनाथ तो हिमकुमारी गिरिजा की और ध्यान ही नहीं दे रहे हैं तो फिर तारकासुर का नाश कैसे होगा।

इसी व्यथा में देवताओं ने कामदेव को शिवजी की तपस्या को भंग करने के उद्देश्य से बुलाया। इंद्र का कार्य सिद्ध करनेवाला कामदेव अपनी पत्नी रति और सखा बसंत के साथ आया और देव सभा में देवराज के सम्मुख उपस्थित हो गया। तब देवराज इंद्र ने कहा इस समय देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए तुम भगवान शंकर पर चढ़ाई करो। महामते ! ऐसी चेष्टा करो जिससे भगवान शिव पार्वती के साथ विवाह कर लें। इंद्र का आदेश पाते ही कामदेव अपनी पत्नी रति के साथ हिमालय पर्वत पहुंचा। वहां पहुंचकर उसने अपने सम्मोहन का बाण भगवान शिव पर छोड़ा ,भाग्य से उसी समय देवी गिरिजा उधर से गुजर रही थी जिसे देखते ही शिवजी उन पर मोहित गए। गए। फिर सहसा अपनी स्थिति का ध्यान आते ही भगवान शिव के नेत्र आश्चर्य से खिल उठे। उन्होंने मन-ही-मन खेद प्रकट करते हुए कहा-मैं स्वतंत्र हूँ,निर्विकार हूँ,तो भी आज इस पार्वती के दर्शन से मोहित क्यों हो गया ?कहाँ से,किससे और किसने मेरा यह अप्रिय कार्य किया है। तदनन्तर शंकर जी ने सब दिशाओं की ओर दृष्टि दौड़ायी। उसी समय दक्षिण दिशा में कामदेव दिखलाई दिया। यह देख भगवान् शिव को समझते देर नहीं लगी और उन्होंने क्रोध में आकर कामदेव को अपने तीसरे नेत्र की अग्नि से भस्म कर दिया।

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उधर पति को अग्नि में भस्म होता देख कामदेव की पत्नी देवी रति विलाप करने लगी तब गिरिजा कुमारी ने उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा की वो उसकी पति को वापस दिलवाएगी। उसके बाद देवी गिरिजा हिमालय पर ही देवी रति के साथ शिवजी की तपस्या में लीन हो गयी। भगवान शंकर की प्रसन्नता के लिए मन में उत्तम निष्ठां रखकर पार्वती उग्र तपस्या द्वारा आराधना करती रही। पार्वती के उस महान तप से सम्पूर्ण चराचर जगत संतप्त होने लगा,तब देवता और असुर सब मिलकरभगवान शंकर के पास गए और समाधी में लीन भगवान शंकर की स्तुति करने लगे। काफी देर तक देवताओं द्वारा स्तुति करने के बाद भगवान शंकर ने आँख खोला और देवताओं से पुछा की आप सभी मेरे पास क्यों आये हैं तब देवताओं ने कहा की हे प्रभो तारकासुर ने देवताओं को महान कष्ट पहुँचाया है। वह देवताओं का घोर शत्रु है। अतः हमारी प्रार्थना है कि आप पार्वतीजी का पाणिग्रहण करें। परन्तु शिवजी ने देवताओं से यह कहते हुए मन कर दिया की अगर मैं गिरिजा देवी का वरन कर लेता हूँ तो आप सभी एक बार फिर सकामभाव से युक्त हो जायेंगे और निष्काम भाव से पूर्ण परमार्थ के पथ पर चलने में असमर्थ होंगे। इसलिए मैंने सबके पारमार्थिक कार्य की सिद्धि के लिए कामदेव को भस्म किया था। शिवजी के ऐसा कहने पर देवता निराश हो गए।

उधर पार्वती देवी बड़ी कठोर तपस्या में लगी हुई थी। उस तपस्या से उन्होंने भगवान शंकर को जीत लिया। और फिर भगवान शंकर और देवी गिरिजा का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के कुछ समय बाद देवी पार्वती और भगवान शंकर के संयोग से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जीएसके नाम कुमार कार्तिकेय रखा गया। कुमार कार्तिकेय के जन्म लेते ही देवलोक की अप्सराएं नृत्य करने लगी,सभी देवता प्रसन्न हो गए और फिर सब भगवान शंकर के पास पहुंचे। तब भगवान शंकर ने इन्द्रादि देवताओं से कहा -देवगण ! यह बालक बड़ा प्रतापी है। इस समय मेरे इस पुत्र से तुम्हे कौन सा काम लेना है,बतलाओ। तब सभी देवताओं ने भगवान पशुपति से कहा भगवन ! इस समय सम्पूर्ण जगत को तारकासुर ने अपने अत्याचार से निराश कर रखा है,इसलिए हम आज ही उसे मारने के लिए यहाँ से प्रस्थान करेंगे। योन कहकर तथा इस कार्य में भगवान शंकर की अनुमति जानकर वे सभी देवगण सहसा वहां से चल पड़े और शंकर जी के पुत्र कार्तिकेय को आगे करके असुर तारक पर चढ़ आये। इस युद्ध में ब्रह्मा,विष्णु आदि सभी देवता संम्मिलित थे। देवताओं के आक्रमण की खबर सुनकर तारकासुर भी बड़ी भारी सेना के साथ देवताओं से लोहा लेने के लिए चल दिया।

देवताओं ने वहां आती हुई तारकासुर की बड़ी भारी सेना को देखा। उसी समय आकाशवाणी हुई-देवगण ! तुम शंकर जी के पुत्र को आगे करके युद्ध के लिए आगे बढ़ो। संग्राम में दैत्यों को जीतकर निश्चय ही विजयी होओगे।यह आकाशवाणी सुनकर सब देवता युद्ध के लिए उत्सुक हो गए।उसके बाद देवराज इंद्र कुमार कार्तिकेय क हाथी पर बिठाकर आगे-आगे चलने लगे। उसके साथ देवताओं की बड़ी भारी सेना थी और लोकपालों ने भी उन्हें सब और से घेर रखा था। उस समय युद्ध की इच्छा रखनेवाले इंद्र आदि सभी देवता अपनी-अपनी सेना के साथ युद्ध में सम्मिलित हो गए। उसके बाद कुमार कार्तिकेय को आगे करके सब देवता पृथ्वी पर उतरे और गंगा-यमुना के बिच अंतर्वेदी में आकर खड़े हुए। तारकासुर के अनुचर भी पाताल से वहां आ गए और देवताओं का वध करने के लिए अपनी सेना के साथ युद्ध स्थल में विचरण करने लगे।फिर दोनों सेनाएं मेघ के समान गंभीर स्वर में गर्जना करने लगी। महाबली देवता और असुर एक दूसरे से भीड़ गए। उनमे घमासान युद्ध होने लगा। बाणो की बौछारों से वहां का सारा मैदान मुण्डों से भर गया। कितने ही धड़ बिना मस्तक के नाच रहे थे। रक्त की नदियाँ बह चली। युद्ध बड़ा भयंकर हो रहा था। थोड़ी ही देर में देवराज इंद्र और तारकासुर में भयंकर युद्ध शुरू हो गया। इसी तरह सभी देवता और लोकपाल दूसरे दूसरे असुरों से युद्ध करने लगे। उधर तारकासुर ने अपनी बड़ी भारी शक्ति चलाकर देवराज इंद्र को घायल कर दिया। वे तुरंत ही ऐरावत हाथी से पृथ्वी पर गिर पड़े और मूर्छित हो गए।

इसी प्रकार अन्य लोकपाल भी महाबली असुरों से पराजित हुए। उस रणभूमि में कितने ही देवताओं को हार का सामना करना पड़ा। कितनो को प्राणो से हाथ धोना पड़ा और कितने ही युद्ध छोड़कर भाग खड़े हुए। इस प्रकार देव सेना को तहस-नहस होता देख महातेजस्वी राजा मुचुकुन्द तारकासुर से युद्ध करने लगे। उधर इंद्र बहुतेरे असुरों से घिरे हुए पृथ्वी पर पड़े हुए थे। उन्हें छोड़कर तारकासुर मुचुकुन्द के साथ भीड़ गया। इस प्रकार मुचुकुन्द और तारकासुर में बड़ा भारी युद्ध हुआ। मुचुकुन्द बड़े बलवान थे। उन्होंने तलवार से तारकासुर पर ज्यों ही प्रहार किया त्यों ही तारकासुर की शक्ति से आहत होकर वे रणभूमि में गिर पड़े। गिरने पर वे भी तत्काल उठकर खड़े हो गए और तारकासुर को मारने के लिए ब्रह्मास्त्र उठाया। तब नारद जी ने कहा-राजन ! तारकासुर मनुष्य के हाथ से नहीं मारा जा सकता। अतः उसके ऊपर इस महान अस्त्र का प्रयोग ना करें। भगवान शिव के पुत्र कुमार कार्तिकेय ही तारकासुर को मारने में समर्थ हैं। अतः आप लोगों को शांत रहना चाहिए।नारद जी की बात सुनकर सब देवता मुचुकुन्द के साथ ही शांत हो गए। तब वीरभद्र ने त्रिशूल से मारकर तारकासुर को भारी आघात पहुंचाया। तारकासुर सहसा पृथ्वी पर गिरा और क्षण भर मूर्छा में डूबा रहा। और कुछ क्षण बाद वह उठकर खड़ा हो गया और शक्ति से उसने वीरभद्र पर प्रहार किया। भगवान शिव के सेवक महाबली वीरभद्र ने भी भयानक त्रिशूल से तारकासुर को पुनः चोट पहुंचाई। इस तरह वे दोनों एक-दूसरे को मारने लगे।

इसके बाद अपनी सेना को तीतर-बितर होती देख तारकासुर ने दस हजार भुजाएं प्रकट की और सिंह पर सवार हो रणभूमि में देवताओं का संहार आरम्भ किया। उसने शिव के बहुत-से गणो की भी मार गिराया। ऐसा लग रहा था मानो वह तीनो लोकों का संहार कर डालेगा। इस प्रकार उस रणक्षेत्र में जब भगवान शिव के पार्षद मारे जाने लगे तब भगवान विष्णु ने शंकर जी के प्रिय पुत्र कुमार कार्तिकेय से हंसकर कहा- कृतिकानन्दन ! तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा वीर नहीं है जो इस पापी तारकासुर का वध कर सके। अतः तुम्हे ही इसका संहार करना चाहिए। तब कुमार कार्तिकेय ने भगवान विष्णु से कहा-भगवन ! यहाँ कौन अपने हैं और कौन पराये,इसका मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है। यह सुनकर देवर्षि नारद ने कहा-हे कुमार ! तुम भगवान शंकर के अंश से उत्पन्न हुए हो,इस जगत के रक्षक और स्वामी हो। देवताओं को सबसे बढकर सहारा देने वाले भी इस समय तुम ही हो। वीरवर ! तारकासुर ने पहले बड़ी उग्र तपस्या की थी। उसी के प्रभाव से उसने देवताओं पर विजयी पायी है,स्वर्गलोक को जीत लिया तथा अजेयता प्राप्त कर ली है।उस दुरात्मा ने इंद्र और लोकपालों को भी परास्त किया है तथा तीनो लोक अपने अधिकार में कर लिए है। वह धर्मात्माओं को सताने वाला है,अतः तुम्हे उसका वध अवश्य करना चाहिए।आज तुम्ही रक्षक होकर सबका कल्याण करो।

नारद जी की बात सुनकर कुमार कार्तिकेय बड़े जोर से हांसे और विमान से उतरकर पैदल चलने लगे। अपने हाथ में अत्यंत प्रभावशाली शक्ति लेकर जब वे रणभूमि में पैदल ही दौड़ने लगे,उस समय उस बालक को आते देख तारकासुर कहने लगा – यह कुमार बड़े-बड़े दैत्यों का संहार करने वाला है। अतः इसके साथ मैं ही युद्ध करूँगा। यह कहकर दुरात्मा तारकासुर कुमार से युद्ध करने के लिए आगे बढ़ा। उसने एक अदभुत शक्ति हाथ में ले ली। इतने में ही शत्रुओं का नाश करने वाले महाबली वीरभद्र उठकर खड़े हो गए। उन्होंने एक चमकते हुए त्रिशूल से जब तारकासुर को मार डालने का विचार किया उसी समय कुमार कार्तिकेय ने उन्हें मना करते हुए कहा- तुम इसका वध ना करो। उसके बाद कुमार कार्तिकेय एक शक्ति लेकर तारकासुर का वध करने के लिए आगे बढे। फिर तारकासुर और कुमार कार्तिकेय में बड़ा ही भयानक संग्राम छिड़ गया। दोनों हाथों में शक्ति लिए दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। परतुं दोनों की शक्ति आपस में टकराकर नष्ट हो जाती। उधर कुमार कार्तिकेय को उत्साह पूर्वक युद्ध करता देख देवता,गन्धर्व आदि आपस में बाते करने लगे -पता नहीं इस युद्ध में किसकी विजय होगी। उसी समय आकाशवाणी हुई-देवताओं ! आज कुमार कार्तिकेय तारकासुर को अवश्य मार डालेंगे। तुम सब लोग चिंता न करो। सुखपूर्वक स्वर्गलोक में स्थित रहो। आकाश में प्रकट हुई इस देवी वाणी को कुमार कार्तिकेय ने भी सुना। सुनकर उस भयानक दैत्य को मार डालने का निश्चय किया।

उसके बाद कुमार ने तारकासुर की छाती पर शक्ति से प्रहार किया। परन्तु दैत्यराज तारक ने उस प्रहार की कोई परवाह ना करके स्वंय ही क्रोध में आकर अपनी शक्ति से कुमार पर आघात किया। उस प्रहार से शंकर नंदन कार्तिकेय मूर्च्छित हो गए। कुछ देर बाद कार्तिकेय ने मतवाला सिंह जैसे हाथी पर झपटता है उसी प्रकार प्रतापी कुमार ने तारकासुर पर गहरा प्रहार किया। उस समय वायु की गति कुंठित हो गयी थी,सूर्य का प्रकाश मंद पड़ गया,पर्वतों और वनो सहित समूची पृथवी डगमगाने लागी। तब पार्वती कुमार ने सभी को धीरज बंधाते हुए कहा-आपलोग खेद और चिंता न करें। आज मैं यहाँ सबके सामने ही इस महापापी दैत्य का वध करूँगा। इस प्रकार सभी को आश्वासन देकर कुमार कार्तिकेय ने मन-ही-मन अपने पिता और माता को प्रणाम किया। फिर हाथ में शक्ति ले उन्होंने दैत्यराज तारक पर बड़े वेग से प्रहार किया। शक्ति का आघात होते ही असुरों का स्वामी तारकासुर सहसा धराशायी हो गया। वज्र के मारे हुए पर्वत की भाँती उसका अंग-अंग चूर हो गया। कुमार कार्तिकेय के द्वारा तारकासुर बलपूर्वक मार दिया गया। दैत्यराज के वध के पश्चात् देवता,ऋषि-मुनि ,गन्धर्व आदि सहित तीनो लोकों के प्राणी पार्वतीनन्दन कुमार कार्तिकेय का स्तुति करने लगे। उसके बाद भगवान शंकर और देवी पार्वती वहां पहुंचे और अपने पुत्र को गॉड में बिठाकर पूर्ण संतोष प्राप्त किया।

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