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कैसे और कब हुई योग की उत्पति ?

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योग

ऐसा माना जाता है की व्यक्ति को दिनचर्या योग के साथ ही शुरू करनी चाहिए। इससे मन और शरीर स्वस्थ रहते हैं। प्रायः योग को शरीर के स्वास्थ्य से जोड़कर ही देखा जाता है परन्तु वास्तव में योग न केवल शरीर और आत्मा अपितु परमात्मा से भी सम्बंधित है। इस लेख में आप जानेंगे की योग क्या है, यह क्यों महत्वपूर्ण है और इसकी उत्पति कहाँ से हुई है।

योग का शाब्दिक अर्थ है जोड़ अर्थात वह अवस्था जो आत्मा से परमात्मा का योग अथवा जोड़ कराये। मित्रों सबसे पहले आपके लिए ये जानना जरूरी है की  योग का अर्थ व्यायाम या आसन मात्र नहीं है। आसन योग का एक भाग है। योग का रूप बहुत विस्तृत है परन्तु वर्तमान में लोगो ने योग को केवल आसन और प्राणायाम से जोड़ दिया है। वास्तव में जो योगी होते हैं वो केवल शरीर पर ध्यान नहीं देते अपितु अपनी इन्द्रियों को नियंत्रित करके ईश्वर के साथ जुड़ने का प्रयास करते हैं और ईश्वर में ध्यान लगाते हैं। हाँ यह भी सत्य है कि आसन योग का बहुत महत्वपूर्ण भाग है। शरीर का ध्यान रखना इसलिए ही आवश्यक है जिससे व्यक्ति ठीक प्रकार से स्वयं का संचालन कर सके और परमात्मा के साथ जुड़ने में सफल हो सके। योग का प्रथम अनुभव शरीर से ही सम्बंधित है। योग का प्रथम कार्य ही शरीर को स्वस्थ बनाना है। योग करने के कुछ समय पश्चात से ही व्यक्ति शरीर को अधिक स्वस्थ, रोग मुक्त और ऊर्जावान अनुभव करने लगता है। 

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इसके पश्चात योग के माध्यम से मस्तिष्क पर प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की भावनाओं और विचारों की शुद्धि होना आरम्भ होती है। योग के इस अनुभव में मस्तिष्क से अवसाद, चिंता, नकारात्मक विचार आदि पर नियंत्रण करना संभव हो जाता है। योग का तीसरा अनुभव मनुष्य को अध्यात्म से जोड़ता है जो योग का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। यदि व्यक्ति इस अनुभव तक पहुँच जाता है तो वो इस संसार में रहते हुए भी सांसारिक बंधनो से मुक्त होता है और परमात्मा के ध्यान में लीन होता है। यह स्थिति उसे ऐसी अवस्था में ले जाती है जहाँ केवल आनंद है। 

अब जानते हैं की योग कितने प्रकार का होता है :

योग के चार प्रकार हैं- कर्म योग, भक्ति योग, ज्ञान योग और राजयोग. आइये पहले इन चार भागों के विषय में जानते हैं।

कर्म योग

कर्म योग का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति के कर्मों से हैं। हमारे शास्त्र कहते हैं कि हम इस संसार में जिस प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हैं। जो भी सुख या दुःख भोग रहे हैं। जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। जो हमे प्राप्त हुआ है और जो हमे प्राप्त नहीं होता जिसकी हम गहन इच्छा रखते हैं। यह सब हमारे पिछले कर्मों के आधार पर ही मिलता है। इसलिए भविष्य को अच्छा बनाने के लिए हमे वर्तमान में अच्छे कर्म करने होंगे। कर्म योग का पालन करने वाले व्यक्ति सुकर्म करते हुए निस्वार्थ होकर जीवन जीते हैं और दूसरों की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

भक्ति योग

भक्ति योग में परमपिता परमेश्वर पर ध्यान केंद्रित करना बताया गया है। इस योग में अपनी समस्त ऊर्जा, विचारों और चित्त को भक्ति में केंद्रित करना होता है।  इसके साथ साथ भक्ति योग हमें सहिष्णुता और स्वीकार्यता प्रदान करता है।

ज्ञान योग

योग की सबसे कठिन और सबसे प्रत्यक्ष शाखा ज्ञान योग है। इस योग में बुद्धि पर कार्य कर बुद्धि को विकसित किया जाता है। ज्ञान योग में ग्रंथों का गंभीर और विस्तृत अध्ययन कर जीवन को उचित ढंग से समझकर बुद्धि को ज्ञान के मार्ग पर अग्रसर किया जाता है। वास्तव में ग्यानी व्यक्ति वही है जो स्वयं के अस्तित्व का उद्देश्य समझता है। ब्रह्म का सही अर्थ जानता है और उस परमात्मा में ध्यान केंद्रित करके ही जीवन व्यतीत करता है।

राजयोग

राज का अर्थ सम्राट होता है। इसमें व्यक्ति एक सम्राट के समान स्वाधीन होकर, आत्मविश्वास के साथ कार्य करता है। राजयोग आत्म अनुशासन और अभ्यास का मार्ग है।

इसके आलावा महर्षि पतंजलि ने योग के आठ प्रमुख अंग बताये हैं। इन आठ अंगों में पहले चरण को यदि सफलतापूर्वक कर लिया और यदि मनुष्य में इच्छाशक्ति है तो उसे आठवें चरण तक पहुंचना भी संभव है। ये आठ अंग क्रमशः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान अथवा एकाग्रता और समाधि। राजयोग में आसन योग का सर्वाधिक महत्त्व है और यह अन्य अंगों की तुलना में सरल भी है। पतंजलि ने कहा है कि ईश्वर को जानने के लिए, अपने और इस जन्म के सत्य को जानने के लिए आरम्भ शरीर से ही करना होगा। शरीर बदलेगा तो चित्त बदलेगा, चित्त बदलेगा तो बुद्धि बदलेगी. जब चित्त पूर्ण रूप से स्वस्थ होता है तब ही व्यक्ति की आत्मा परमात्मा से योग करने में सक्षम होती है।

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इन सभी अंगों के उप अंग भी हैं। वर्तमान में साधारण व्यक्ति केवल तीन ही अंगों का पालन करते हैं आसान, प्रायाणाम और ध्यान। इनमें से भी ध्यान करने वाले व्यक्तियों की संख्या बहुत कम है।  बहुत से लोग प्रथम पांच अंगों में ही पारंगत होने का प्रयास करते हैं, परन्तु वे योग के आठों अंगों को प्रक्रिया में सम्मिलित नहीं करते जिस कारण योग का सम्पूर्ण लाभ नहीं मिलता। वास्तव में जो योगी हैं वे आठों अंगों का पालन करके स्वयं को ईश्वर से जोड़ते हैं।

वर्तमान में राजयोग किया जाता है और इसके अष्टांगों में आसन, प्राणायाम और ध्यान सबसे अधिक प्रचलन में हैं। और आइये अब जानते हैं राजयोग के अष्टांगों के विषय में:

यम

सामाजिक व्यवहार के पालन करने को यम कहते हैं जैसे लोभ न करना, किसी को प्रताड़ित न करना, चोरी डकैती, नशा, व्यभिचार न करना. और बिना कुछ गलत किये सत्य के आधार पर जीवन निर्वाह करना. इस प्रकार के जीवन की शपथ लेना अर्थात आत्म नियंत्रण यम का भाग है।

नियम

नियम का सम्बन्ध व्यक्ति के आचरण से है. चरित्र, आत्म अनुशासन आदि एक आदर्श व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं. राजयोग की इस शाखा में इस प्रकार के व्यक्तित्व का अनुसरण करना होता है।

आसन

शरीर के अंगों को उचित रूप से संचालित रखने के लिए जो योगिक क्रियाएं की जाती हैं उन्हें आसन कहते हैं।

प्राणायाम

प्राणायाम श्वास नियंत्रण की बहुत विस्तृत प्रक्रिया है।  प्राणवायु को संतुलित रूप से ग्रहण करना, नियमित रूप से लम्बी और गहरी श्वास लेना आदि इसके भाग हैं। यह बहुत कठिन प्रक्रिया है। इस पर सिद्धि प्राप्त करने वाले व्यक्ति को दीर्घायु और सफल जीवन प्राप्त होता है।

प्रत्याहार

प्रत्याहार का अर्थ है संसार में किसी भी वस्तु या मनुष्य में मोह या आसक्ति न होना। संसार में रहते हुए, सभी कार्य करते हुए चाहे वो विवाह करना हो या संतान उत्पत्ति हो या अन्य कार्य, व्यक्ति को प्रत्याहार का पालन करना चाहिए अर्थात सामाजिक कार्य करते हुए भी किसी भी चीज़ से आसक्ति नहीं होनी चाहिए।

धारणा

मन की एकाग्रता ही धारणा कहलाती है। एकाग्रता मनुष्य को सफलता की ओर अग्रसर करती है।  योग में अनेक ऐसी क्रियाएं और आसान है जो एकाग्रता में वृद्धि करती हैं।

ध्यान

इस अवस्था में निर्विचार होकर श्वासों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। सम्पूर्ण ध्यान श्वास लेने और छोड़ने की प्रक्रिया पर ही केंद्रित किया जाता है।  इस प्रकार समय के साथ व्यक्ति ध्यान की प्रक्रिया करने में सफल होता है जिससे मन की शान्ति प्राप्त होती है।

आठवां और अंतिम चरण है समाधि

ध्यान पर जब नियंत्रण हो जाता है जब व्यक्ति समाधि की अवस्था में पहुँचता है अर्थात परब्रह्म में लीन हो जाता है. समाधि की अवस्था में व्यक्ति परमानंद को प्राप्त करता है। 

अब जानते है कि योग का आरम्भ कब और कैसे हुआ ?

लगभग 15000 वर्ष पूर्व हिमालय में एक योगी पहुंचे। उनके भूत, वर्तमान आदि के विषय में कोई नहीं जानता था। दिन बीतते गए परन्तु वे कुछ नहीं बोले. उनकी देह और चेहरे पर इतना तेज था कि उनको देखने लोगों की भीड़ जमा होने लगी। सभी उनके विषय में पूछते थे परन्तु वे कोई उत्तर नहीं देते थे। वे महीनों तक केवल बैठे रहे। ऐसा देख लोग किसी चमत्कार की अपेक्षा कर रहे थे। बिना कुछ ग्रहण किये, बिना कोई नित्य क्रिया किये वे एक स्थान पर स्थिर थे। लोगों को केवल इस बात से उन्हें जीवित होने का प्रमाण मिल रहा था कि कुछ कुछ समय बाद उनके आंसू बह रहे थे। ये आंसू परम आनंद के थे। जब व्यक्ति बहुत आनंद में होता है तब भी उसके अश्रु निकलते हैं। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उन्हें स्थिर देख लोग वहां से जाने लगे और अंत में केवल सात लोग रुके रहे। वे ये समझ गए थे कि वे योगी निरंतर केवल एक ही स्थिति में केवल बैठे हैं अर्थात वे इस संसार के बंधनों, भौतिकता आदि से परे हैं अन्यथा ऐसा संभव नहीं। इन सात लोगों को सप्तऋषि कहा गया और जो योगी वहां बैठे थे वे आदियोगी थे। सप्तऋषि आदियोगी के प्रथम शिष्य थे। उन सात लोगों की रूचि देखकर आदियोगी ने उन्हें प्रारम्भिक शिक्षा देना आरम्भ की और उनकी शिक्षा अनेक वर्षों तक चली।

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जब एक दिन सूर्य की दिशा परिवर्तित हो रही थी, सूर्य जब दक्षिण की ओर मुड़ा तब वे भी दक्षिण की ओर मुड़कर मनुष्य होने का विज्ञान समझाने लगे। मित्रों यह वो तिथि थी जो प्रति वर्ष 21 जून को आती है। इसी दिन योग का आरम्भ हुआ था। इसलिए ही इस दिन को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया है। जब धरती पर कोई धर्म, जात पात नहीं था योग का आरम्भ तभी हो गया था। उन्होंने सप्तऋषियों को मनुष्य होने का यंत्र विज्ञान विस्तार रूप से वर्णित किया जिसमे उन्होंने 112 मार्ग बताये जिससे व्यक्ति अपनी वास्तविक स्थिति अथवा परम प्रकृति को प्राप्त कर सकता है और सम्पूर्ण योग विज्ञान इन्ही मार्गों का अनुसरण करता आया है। सप्तऋषि योग विद्या का प्रचार करने साथ भिन्न भिन्न दिशाओं में गए। और इस प्रकार योग का आरम्भ हुआ जिसका लाभ आज हम सब ले रहे हैं।

https://youtu.be/3zDeyXBb_Vo
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