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जय और विजय को क्यों मिला था श्राप

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आप सभी ने हिरणायक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कुम्भकरण, शिशुपाल और दंतवक्र  के बारे में तो अवश्य ही सुना होगा परन्तु क्या आप जानते हैं की ये सभी कौन थे और इन सभी का वध भगवान विष्णु ने ही क्यों किया था अगर नहीं तो इस पोस्ट को अंत तक जरूर पढ़ें।

श्रीमद्भागवत पुराण के पन्द्रहवें अध्याय में वर्णित कथा के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में परमपिता ब्रह्मा जी के चार मानस पुत्र सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार हुए जिन्हे सनकादि ऋषि के नाम से भी जाना जाता है। ब्रह्माजी के ये सभी पुत्र अपनी इच्छा से सम्पूर्ण लोकों में कही भी आ-जा सकते थे। एक दिन की बात है सनक,सनन्दन,सनातन और सनत्कुमार के मन में भगवान विष्णु के दर्शन करने की इच्छा उत्पन्न हुई तो वो सभी भाई वैकुण्ठधाम के लिए निकल गए। परन्तु जब वे चारों भाई वैकुण्ठ धाम के द्वार पर पहुंचे तो उन्हें जय और विजय नाम के दो द्वारपालों ने अंदर जाने से रोक दिया। और उनसे पुछा की हे बालक आप लोग कौन हैं और यहाँ किस उद्देश्य से आये हैं। तब चारों भाइयों ने अपना परिचय देते हुए कहा कि हे द्वारपालों हमलोग ब्रह्मजी के मानस पुत्र सनकादि ऋषि हैं और हमलोग यहाँ श्री हरि के दर्शन करने आये हैं। तब उन दोनों द्वारपालों ने सनकादि ऋषियों से कहा हे बालक आप लोग अभी अंदर नहीं जा सकते क्योंकि भगवान विष्णु जी अभी विश्राम कर रहे हैं। चुकी वे चारों ऋषिगण थे तो अत्यधिक आयु के किन्तु  तप के प्रभाव से वे बालक नजर आते थे, इसी कारण से जय और विजय उन्हें पहचान नहीं पाया और उन्हें साधारण बालक समझकर रोक दिया।

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दोनों द्वारपालों के इस प्रकार मना करने पर सनकादि ऋषियों को क्रोध आ गया परन्तु क्रोध पर काबू रखते हुए उन्होंने द्वारपालों से कहा कि अरे मूर्ख द्वारपालों हम तो भगवान विष्णु के भक्त हैं और क्या तुम्हे यह नहीं मालूम की हमें कोई भी कहीं आने जाने से नहीं रोक सकता है। वैसे भी हम तो केवल अपने नारायण का दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो ? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। जैसे भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, वैसे ही तुम्हारा स्वभाव होना चाहिये। हम सभी तुमसे विनती कर रहे हैं की हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो। इस प्रकार कई बार विनती करने पर भी जब जय और विजय नाम के उन दो द्वारपालों ने सनकादि ऋषियों को वैकुण्ठधाम के अंदर नहीं जाने दिया तो उन सभी का मुख क्रोध से लाल हो गया और उन सभी ने दोनों द्वारपालों से क्रोध भरे स्वर में कहा की तुमलोगों में भगवान् विष्णु के समीप रहने के बाद भी अहंकार आ गया है और अहंकार का वास वैकुण्ठधाम में कभी नहीं हो सकता। इसलिए हम सभी तुम दोनों को श्राप देते हैं की तुम दोनों राक्षस बन जाओ और मृत्यु लोक में जाकर वास करो।

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सनकादिक ऋषियों के ये कठोर वचन सुनकर और ब्राह्मणो के शाप को किसी भी प्रकार के शास्त्र समूह से निवारण होने योग्य न जानकर श्रीहरि के वे दोनों पार्षद अत्यंत दीनभाव से उनके चरण पकड़कर पृथ्वी पर लौट गये। वे जानते थे कि उनके स्वामी श्रीहरि भी ब्राह्मणो से बहुत डरते हैं। फिर उन्होंने अत्यंत आतुर होकर कहा-भगवन ! हम अवश्य अपराधी हैं अतः आपने हमें जो दण्ड दिया है,वह उचित ही है और वह हमें मिलना ही चाहिए। हमने भगवान का अभिप्राय न समझकर उनकी आज्ञा का उल्लंघन किया है। इससे हमें जो पाप लगता है,वह आपके दिए हुए दण्ड  से सर्वथा धूल जायेगा। किन्तु हमारी इस दुर्दशा का विचार करके यदि करुणावश आपको थोड़ा सा भी अनुताप हो तो ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे उन अधमाधम योनियों में जाने पर भी हमें भगवत स्मृति को नष्ट करनेवाला मोह न प्राप्त हो।

उधर जब भगवान् विष्णु को मालूम हुआ की मेरे द्वारपालों ने सनकादि ऋषियों का अनादर किया है,तब वे लक्ष्मी जी सहित वहां तुरंत आ पहुंचे। तब सनकादि ऋषियों ने हाथ जोड़ते हुए कहा की हे अनंत स्वामी आज हमारे नेत्रों के सामने तो आप साक्षात् विराजमान हैं। प्रभो ! जिस समय आपसे उत्पन्न हुए हमारे पिता ब्रह्माजी ने आपका रहस्य वर्णन किया था,उसी समय श्रवण रंध्रों द्वारा हमारी बुद्धि में तो आप आ विराजे थे किन्तु प्रत्यक्ष दर्शन का महान सौभाग्य तो हमें आज ही प्राप्त हुआ है। भगवन ! आपने हमारे सामने जो यह मनोहर रूप प्रकट किया है,उससे हमारे नेत्रों को बड़ा ही सुख मिला है,विषयासक्त अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये इसका दृष्टिगोचर होना अत्यंत कठिन है। आप साक्षात् भगवान हैं और हम आपको प्रणाम करते हैं।

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सनकादि ऋषियों की स्तुति के बाद दोनों द्वारपालों ने भगवान विष्णु को प्रणाम किया और उनसे विनती भरे स्वर में कहा की हे स्वामी इन ऋषियों ने हमें राक्षस योनि में जन्म लेने का श्राप दिया है कृपया कर आप हमें इस श्राप से मुक्ति दिलाइये। तब भगवान श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा। हे ऋषिगण ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। इन्होने मेरी कुछ भी परवाह न करके आप सभी का बहुत अनादर किया है। आपलोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं,अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने जो इन्हे दण्ड दिया है वह मुझे भी अभिमत है। ब्राह्मण मेरे अनुचरों के द्वारा आपलोगों का जो तिरस्कार हुआ है उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिए मैं आपलोगों से प्रसन्नता की भिक्षा मांगता हूँ। क्योंकि सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है,जैसे त्वचा को चर्मरोग। मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आप लोगों का अपमान किया है। इसलिए मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिए कि इनका यह निर्वासन काल शीघ्र ही समाप्त हो जाये,ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आएं।

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भगवान् के मुख से ऐसे सुमधुर वचन सुनकर सनकादि ऋषियों ने कहा कि हे नारायण आप तो साक्षात धर्मस्वरूप है। यह तो आपकी लीलामात्र है। सर्वेश्वर ! इन द्वारपालों को आप जैसा उचित समझें वैसा दण्ड दें,अथवा पुरूस्कार रूप में इनकी वृति बढ़ा दें-हम निष्कपट भाव से सब प्रकार आपसे सहमत हैं। अथवा हमने आपके इन निरपराध अनुचरों को शाप दिया है,इसके लिए हमें ही उचित दण्ड दें। हमें वह भी सहर्ष स्वीकार है। यह सुन भगवान विष्णु ने फिर उनसे कहा की हे ऋषिगण आपने जो श्राप दिया उसे पूरी तरह तो समाप्त नहीं किया जा सकता परन्तु अगर आप सभी चाहें तो इस श्राप को सिमित कर सकते हैं। प्रभु की ऐसी बातें सुनकर सनकादि ऋषियों ने कहा की हे नारायण आपकी अनुसंशा को ताला नहीं जा सकता इसलिए मैं इन दोनों के शाप को सिमित करता हूँ। जिससे इन दोनों अर्थ जय और विजय नाम के आपके द्वारपालों को असुर योनि में तीन बार जन्म लेना होगा और हर जन्म में इन दोनों की मुक्ति आपके ही हाथों होगी। इन दोनों का ये जन्म अलग अलग युगों में होगा और उस युग में जब आप अवतरित होंगे तो ये दोनों आपके हाथों मारे जायेंगे और अंत में वैकुण्ठधाम को वापस लौट आएंगे।इतना कहकर सनकादि ऋषि वहां से लौट आये।

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उसके बाद भगवान विष्णु ने अपने अनुचरों से कहा — जाओ जाकर श्राप भुगतो और मन में किसी प्रकार का भय मत करना ,क्योंकि  दैत्ययोनि में मेरे प्रति क्रोधाकार वृति रहने से तुम्हे जो एकाग्रता होगी,उससे तुम इस विप्र-तिरस्कार जनित पाप से मुक्त हो जाओगे और फिर थोड़े ही समय में मेरे पास लौट जाओगे। द्वारपालों को इस प्रकार आज्ञा दे भगवान श्रीसम्पन्न धाम में प्रवेश किया। उधर नारायण के वहां से जाते ही जय-विजय निचे गिरने लगा। जिससे वैकुंठवासियों में हाहाकार सी मच गयी परन्तु जब उन्हें श्राप के बारे पता चला तो वे सभी शांत हुए।

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