पौराणिक काल के चरित्र हम सभी के समक्ष एक आदर्श उदाहरण प्रस्ततु करते हैं. शास्त्रों के उल्लेख के अनुसार पौराणिक काल के बहुत से लोग हमे बेहतर जीवन की ओर अग्रसर करते हैं.फिर चाहे वो पिता का चरित्र हो या माँ का, या भाई बहिन, पुत्र, पति, पत्नी मित्र आदि का. विशेषकर यदि पिता की आज भी पिता शब्द ऐसा है जो स्वयं को बड़े से बड़े कष्ट देकर अपनी संतान को प्रसन्न देखकर ही प्रसन्न है. हम सभी कहीं न कहीं जीवन में अपने पिता को दिल से धन्यवाद देने की इच्छा रखते हैं. इस पोस्ट में हम आपको पौराणिक काल के पिता जिन्होंने अपना धर्म नहीं निभाया.
उत्तानपाद और ध्रुव
स्वयम्भुव मनु और शतरूपा के पुत्र उत्तानपाद बहुत महान राजा थे. उनकी सुनीति और सुरुचि नाम की दो पत्नियां थीं. सुनीति से उत्पन्न पुत्र का नाम ध्रुव और सुरुचि का पुत्र उत्तम था. राजा उत्तानपाद सुरुचि की ओर अधिक आसक्त थे. इसलिए सुनीति और उसका पुत्र ध्रुव दोनों ही उपेक्षित थे. एक बार ध्रुव पिता उत्तानपाद की गोद में आकर बैठा तब सुरुचि ने उसे गोद से उठाकर धक्का देते हुए कहा कि तुमने मेरे गर्भ से जन्म नहीं लिया है इसलिए तुम इस गोद में बैठने योग्य नहीं हो. इस वृत्तांत के पश्चात माता की आज्ञा से ध्रुव घर से दूर वन में तपस्या के लिए चला गया. उसके जाने के बाद नारद मुनि ने राजा को विश्वास दिलाया कि राजा का यह पुत्र यश का भागी बनेगा. छोटी सी ही आयु में बालक की इतनी गहन तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने बालक को ध्रुव तारा बना दिया. जिस कच्ची आयु में एक बालक को माता पिता के प्रेम की ललक होती है उस आयु में ध्रुव को उपेक्षा का सामना करना पड़ा और पिता उत्तानपाद ने ध्रुव पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध एक आवाज़ नहीं उठायी.
बालक ध्रुव के ध्रुव तारा बनने की कहानी
भीम और घटोत्कच
हिडिम्बी और भीम पुत्र घटोत्कच के पास मनुष्य की बुद्धि एवं विद्वानता और दानवी शक्ति थी इसलिए वो बहुत ही महत्वपूर्ण और शक्तिशाली चरित्र था. भीम अपनी माँ कुंती की आज्ञा पर हिडिम्बी और घटोत्कच को वन में छोड़कर वापस चले गए थे. घटोत्कच ने महाभारत की रणभूमि में आकर पिता की सहायता की और कौरवों को चीटियों कि तरह कुचल कर मारना आरम्भ कर दिया. यह देख कर्ण ने वैजन्ती शस्त्र का प्रयोग करते हुए घटोत्कच का वध कर दिया. यह शस्त्र कर्ण को इंद्र से प्राप्त हुआ था. इस प्रकार घटोत्कच ने उस पिता के लिए अपने प्राणो की बलि दी जिसने उसे बचपन में ही त्याग दिया था.
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दुष्यंत और भरत
भरत दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र थे. आइये पहले शकुंतला की कहानी पर प्रकाश डालते हैं. एक बार अप्सरा मेनका ने ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग कर ऋषि को प्रेमपाश में बाँध लिया. इन दोनों से एक पुत्री उत्पन्न हुई. इसके पश्चात ऋषि ने मेनका और पुत्री का त्याग कर दिया. मेनका अपनी पुत्री को वापस स्वर्ग नहीं ले जा सकती थी इसलिए उसे एक वन में छोड़कर स्वर्ग के लिए पलायन कर गयी. वन में विश्वामित्र और मेनका की पुत्री को ऋषि कण्व ने देखा और उसे अपने घर ले गए. ऋषि ने उसका पालन पोषण किया और इस बालिका का नाम शकुंतला रखा. एक बार कण्व ऋषि की अनुपस्थिति में राजा दुष्यंत वन में शिकार के लिए गए और वहां शकुंतला को देखा. दोनों प्रेम के बंधन में बंधे और बाद में गन्धर्व विवाह किया. चूँकि ऋषि कण्व आश्रम में नहीं थे और उन्हें इस विवाह के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं था, राजा दुष्यंत ने शकुंतला से कहा कि वो बाद में ऋषि की आज्ञा से उसे अपने महल ले जायेंगे. निशानी के तौर पर राजा ने शकुंतला को एक अंगूठी दी. राजा के जाने के पश्चात एक बार दुर्वासा ऋषि कण्व के आश्रम में पधारे. वहां शकुंतला अपने पति की याद में बेसुध बैठी हुई थी और दुर्वासा ऋषि पर उसने ध्यान ही नहीं दिया तब ऋषि ने उसे श्राप दिया कि जिसकी याद में तूने मेरा अपमान किया है वो तुझे भूल जायेगा. शकुंतला ने ऋषि से क्षमा मांगी और ऐसा भयानक श्राप वापस लेने के लिए विनती की तब ऋषि ने कहा कि मैं श्राप तो वापस नहीं ले सकता परन्तु यह वरदान देता हूँ कि जब भी वो तुझे दी हुई मुद्रिका देखेगा तो उसकी स्मरण शक्ति वापस आ जाएगी.
विश्वामित्र और मेनका की प्रेम कथा
जब कण्व ऋषि यात्रा से वापस आये और उन्हें पुरे वृत्तांत का पता लगा तो उन्होंने शकुंतला से कहा कि उसे पति के घर जाना चाहिए. जब शकुंतला दुष्यंत के महल पहुंची तो राजा ने उसे पहचानने से मना कर दिया और उसे महल से बाहर निकाल दिया. पुत्री की ऐसी दशा देख मेनका शकुंतला की रक्षा के लिए आयी और उसे कश्यप ऋषि के आश्रम में पहुंचा दिया. शकुंतला ने एक पुत्र को जन्म दिया और पिता के बिना ही कुछ वर्षों तक इस बालक का पालन पोषण किया. वर्षों पश्चात संयोग से दुष्यंत को वो मुद्रिका मिली जो उन्होंने शकुंतला को दी थी और उसके बाद उनकी स्मरण शक्ति वापस आ गयी और शकुंतला को ढूंढते ढूंढते दुष्यंत अंततः कश्यप ऋषि के आश्रम पहुंचे. उन्होंने शकुंतला से भेंट की परन्तु सिंहों के साथ कहे रहे अपने साहसी पुत्र को नहीं पहचान सके तब उस समय एक आकाशवाणी से उन्हें ज्ञात हुआ कि जो बालक शेरों के साथ खेल रहा है वो उनका ही पुत्र है. दुष्यंत ने उसका नाम भरत रखा जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा. बचपन के कोमल दिनों में भरत पिता के बिना ही रहे. जब माता पिता दोनों की आवश्यकता होती है उस समय दुष्यंत ने अपनी पत्नी को पहचानने से ही मना कर दिया. दुष्यंत एक श्रेष्ठ राजा तो थे परन्तु एक आदर्श पिता नहीं बन सके.
शिव और गणेश
शिव जी ने अपने ही पुत्र का सिर धड़ से अलग कर दिया था. यदि हम भौतिक बुद्धि से विचार करें तो यह बहुत ही क्रूर कृत्य था. एक पिता अपनी संतान के साथ ऐसा नहीं करता. आइये इस वृत्तांत पर एक दृष्टि डालते हैं. एक बार शिव जी के गण नंदी ने माँ पार्वती के आज्ञा पालन में त्रुटि कर दी जिसके परिणामस्वरूप पार्वती ने अपने शरीर के उबटन से एक बालक का निर्माण किया और कहा कि तुम मेरे पुत्र हो, तुम केवल मेरी आज्ञा का पालन करना. देवी ने बालक से कहा कि मैं स्नान के लिए जा रही हूँ, तुम द्वार पर पहरा देना और किसी को भी प्रवेश करने की अनुमति मत देना. पार्वती जी जब स्नान के लिए गयीं तब कुछ समय पश्चात ही शिव जी पधारे और पार्वती के भवन में प्रवेश करने लगे. तब बालक ने महादेव को प्रवेश नहीं करने दिया. बालक का ऐसा हठ देखकर शिव जी ने क्रोध में आकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया. यह देख पार्वती जी बहुत क्रोधित हुईं और सम्पूर्ण सृष्टि में हाहाकार मच गया. तब सभी देवताओं और भगवन विष्णु ने शिव जी से बालक को पुनर्जीवन देने के लिए कहा. शिव जी एक हाथी का सिर काटकर लाये और और उस बालक के धड़ पर रख दिया. बालक जीवित हो गया. तब सभी देवताओं ने मिलकर उस बालक को आशीर्वाद दिया और उसे गणेश, विनायक, गणपति आदि नामों से पुकारा.
अर्जुन और इरावान
अर्जुन ने नागकन्या उलूपी से विवाह किया जिससे अर्जुन को एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम इरावान रखा गया. कुछ समय पश्चात ही अर्जुन दोनों को नागलोक में छोड़कर वापस चला गया. यहाँ एक पति और पिता के रूप में अर्जुन का कर्तव्य था कि दोनों को अपने साथ लेकर जाए. जब महाभारत युद्ध में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कौरवों की ही विजय होगी तब अर्जुन ने इरावान को बुलाया. युद्ध के दौरान घोषणा हुई कि पांडवों की विजय तभी संभव है जब देवी काली को किसी राजकुमार की बलि दी जाये. इरावान उस पिता के लिए जिसने उसे बचपन में ही त्याग दिया था, इतना बड़ा बलिदान देने के लिए सहमत हो गया और उसने अपना सिर धड़ से अलग कर देवी को अर्पित कर दिया.
शांतनु और भीष्म
भीष्म शांतनु और गंगा के पुत्र थे. गंगा को ज्ञात था कि एक श्राप के कारण उसके सभी पुत्रों को बहुत कष्टदायी जीवन प्राप्त होगा इसलिए वो सभी पुत्रों को जल में प्रवाहित कर देती थी. विवाह के समय गंगा ने शांतनु से वचन लिया था कि वो जीवन में कुछ भी करे परन्तु शांतनु उससे कोई प्रश्न नहीं करेंगे. इसलिए शांतनु मन ही मन गंगा के अपने ही पुत्रों के जीवन का अंत करने से दुखी थे परन्तु वचन देने के कारण इसका कारण न पूछने के लिए बाध्य थे. जब गंगा अपने आठवे पुत्र देवव्रत को प्रवाहित करने जा रही थी तब शांतनु से रुका नहीं गया और उन्होंने उसे रोक लिया. और इस प्रकार अपने सभी भाइयों में केवल भीष्म को ही जीवन प्राप्त हुआ. यहाँ पर शांतनु ने एक पिता का कर्तव्य पूरा करते हुए अपने पुत्र की रक्षा की. परन्तु काम वासना के कारण अपने पुत्र का जीवन विषमताओं से परिपूर्ण बना दिया. आइये जानते हैं कैसे.
एक बार शांतनु विचरण के लिए वन में गए. वहां उन्होंने एक मछुआरे की कन्या सत्यवती को देखा और उसकी ओर आकर्षित हो गए. विवाह का प्रस्ताव रखने पर मछुआरे ने शांतनु से वचन लिया कि सत्यवती से उत्पन्न पुत्र को ही हस्तिनापुर का सिंहासन प्राप्त होगा. यह सुनकर देवव्रत ने भीष्म प्रतिज्ञा ली कि वो जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे जिससे पिता के जीवन में कोई व्याधा न आये. और इसीलिए उनका नाम भीष्म पड़ा जो आज तक लोगों के लिए एक आदर्श चरित्र हैं. भीष्म ने जीवन के अंत तक इस प्रतिज्ञा को नहीं तोडा और कुरुक्षेत्र की भूमि पर अपने प्राण त्याग दिए.
हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद
हिरण्यकशिपु की क्रूरता से तो हम सभी भली भांति परिचित हैं. वो स्वयं को भगवान मानता था और चाहता था कि सभी लोग उसकी पूजा करें. भय से हिरण्यकशिपु की प्रजा उसकी पूजा करती थी परन्तु उसका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था. प्रह्लाद की भक्ति देख हिरण्यकशिपु ने अनेक प्रयास किये कि प्रह्लाद भगवान विष्णु की आराधना छोड़ उसकी पूजा करे. अनेक प्रयासों के बाद भी जब भक्त प्रह्लाद विचलित नहीं हुआ तो हिरण्यकशिपु ने उसका वध करने के अनेक प्रयास किये. जब उसके सभी प्रयास असफल रहे तो अंततः उसने अपनी बहिन होलिका की सहायता से उसका वध करने का प्रयास किया. होलिका को अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था इसलिए होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि पर बैठ गयी. भक्त की ऐसी समर्पण भावना देख भगवान विष्णु नरसिंह भगवान के रूप में प्रह्लाद के प्राणो की रक्षा के लिए स्वयं आये और हिरण्यकशिपु का वध किया.