यह बात तो स्पष्ट है कि मृत्युलोक में मनुष्य का जन्म पिछले कर्मो का फल भोगने के लिए मिलता है। यह एक दुखालय है जिसमे हम अपने बुरे कर्मो के फल भोगने के लिए जन्म लेते हैं। परन्तु मृत्युलोक की सभी योनियों में मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ मानी गयी है। यदि हम यहाँ अपने कर्मों के फल भोगने के लिए जन्म लेते हैं। तो क्या इसका आरम्भ तभी से हो जाता है जब मनुष्य माँ के गर्भ में होता है? आइये जानते हैं कि इसका सत्य क्या है? और गर्भ में शिशु क्या महसूस करता है ?
मनुष्य के जन्म का रहस्य
मनुष्य जन्म से सम्बंधित गरुण पुराण, भविष्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि में बहुत से तथ्य हैं। जिनमे अधिकाँश बातें चौंका देने वाली हैं। इन्ही तथ्यों में से एक है कि जब मनुष्य माँ के गर्भ में होता है। तभी से उसकी परीक्षा आरम्भ हो जाती है जो जीवन के अंत तक चलती है। अर्थात गर्भ में ही हम अपने कर्मो के फल भोगना शुरू कर देते हैं। गर्भ में स्थित अंकुर जब विकसित होता है तो उसके आकार में वृद्धि के साथ माँ के गर्भकोष का आकार भी बढ़ जाता है। स्त्री जैसा भी भोजन ग्रहण करती है वैसा ही रक्त के माध्यम से शिशु तक पहुँचता है। और जैसे स्त्री के विचार होते हैं उसका पूरा प्रभाव शिशु पर पड़ता है। माँ के भोजन से ही शिशु वृद्धि करता है।
पिछले जन्म की बातें
जैसे जैसे विकसित होता जाता है वैसे वैसे उसे अपने पिछले जन्म स्मरण होते हैं। जिसके कारण उसे आत्मग्लानि, निराशा और कष्ट होता है। उसे गर्भ में ही ऐसे विचार आते हैं कि “मैं अगले जन्म में कोई ऐसा कार्य नहीं करूँगा जिसके कारण पुनः गर्भ में प्रवेश करना पड़े। अपने पिछले सैकड़ों जन्मो के दुखों और कर्मों को याद करके शिशु का मन बहुत दुखी होता है। और गर्भ में ही मोक्ष का पथ ढूढ़ने लगता है। भविष्य पुराण में उल्लेखनीय है कि शिशु को अपने पिछले जन्म के अच्छे बुरे सभी कर्मों के विषय में याद रहता है। साथ ही उसे यह भी याद होता है कि पिछले जन्म में उसकी मृत्यु किस कारण और किस प्रकार हुई। यहाँ तक कि गर्भ में शिशु को यह भी समझ होती है कि पुनः जन्म लेने के पश्चात उसे फिर से सांसारिक बंधनों में बंधना पड़ेगा। वो पुनः मृत्यु को प्राप्त होगा
गर्भ में होनेवाले कष्ट
भविष्य पुराण के अनुसार, गर्भ में शिशु को उतना ही कष्ट झेलना पड़ता है। जितना किसी व्यक्ति को एक पर्वत के नीचे दबने से होता है। या ऐसा कह सकते हैं कि मनुष्य को इस संसार में जिस परिस्थिति में सबसे अधिक कष्ट होता है। उससे कहीं अधिक कष्ट गर्भ में शिशु को होता है। गर्भ की तपन से शिशु को बहुत कष्ट और पीड़ा का सामना करना पड़ता है। यहाँ पर आप यह सोच सकते हैं कि जिस शिशु का जन्म भी नहीं हुआ। उसके विचार इस प्रकार का आकार कैसे ले सकते हैं? दरअसल, विचारों के लिए चेतना का होना आवश्यक है और इस संसार में जिसके अंदर भी प्राण हैं उसमे चेतना भी होती है। गर्भ में भी शिशु में चेतना तो होती ही है और ईश्वर ने हमारी रचना कुछ इसी प्रकार की है कि हम गर्भ में अपने पिछले अनेक जन्मो को याद कर लेते हैं। माँ के गर्भ में दुखी होने के कारण शिशु जन्म के समय रोते हुए इस संसार में प्रवेश करता है और गर्भ से बाहर आकर वो यह नहीं समझ पाता कि वो इससे पहले कहाँ पर था और अचानक कहाँ आ गया।
हिन्दूधर्म में जन्म को शुभ और मृत्यु को अशुभ क्यों माना जाता है?
उस समय वो पूर्णतया किंकर्तव्यविमूढ़ होता है। भविष्य पुराण में उल्लेखनीय है कि एक जीव को सबसे अधिक कष्ट गर्भ में और गर्भ से बाहर आते समय होता है। यह कष्ट दुनिया के सबसे बड़े कष्टों से भी कहीं अधिक है। यहाँ आते ही माया के प्रभाव के कारण उसका पूर्व ज्ञान नष्ट हो जाता है। वो अपना वास्तविक अस्तित्व भूल जाता है और ईश्वर को भी स्मरण नहीं रखता। अपनी स्वेच्छा से हम जैसे जैसे इस संसार में घुलने मिलने लगते हैं अपने पिछले जन्म और कर्म सब भूल जाते हैं। इसी कारण बुरे कर्म करते हुए बिलकुल नहीं घबराते।