महाभारत की अधिकतर कथाओं में कौरवों -पांडवो से जुड़े प्रसंगो और कथाओं का विवरण मिलता है । इन कथाओं के बारे में अधिकतर लोग जानते भी है । पर इस धर्मग्रन्थ में और भी कई ऐसी कथाएं हैं जो आम जनमानस को जानना चाहिए । आज मैं आपको राक्षसी जरा से जुडी एक ऐसी कथा बताने जा रहा हूँ । जिसके बारे में आप शायद ही जानते हों।
कौन थी राक्षसी जरा
अधिकतर लोग राक्षसी जरा के बारे में बस इतना ही जानते हैं की उसने एक बालक के दो टुकड़ों को आपस में जोड़ दिया था । जो बाद में जरासंध के नाम से जाना गया । लेकिन ज्यादातर लोग जरा की उत्पत्ति के बारे में नहीं जानते । जबकि राक्षसी जरा की उत्पति का वर्णन महाभारत ग्रन्थ के सभा पर्व में किया गया है।
महाभारत के सभापर्व के अनुसार उस समय बृहद्रथ काशी नरेश हुआ करते थे । उनकी दो रानियां थी । लेकिन कोई संतान नहीं थी । इसी चिंता में काशी नरेश हमेशा डूबे रहते थे । एक दिन उन्हें पता चला की उनके राज्य में ऋषि चंडकौशिक आये हुए हैं । राजा को एक उम्मीद की किरण दिखाई दी और वो ऋषि से मिलने चल दिए । ऋषि के पास पहुँच कर उनहोने बताया की उनके कोई संतान नहीं हैं । ऋषि को राजा की बात सुनकर दया आ गई । ऋषि ने राजा को एक आम का फल दिया और कहा की इसे अपनी रानी को खिला देना।
जरासंध का जन्म
काशी नरेश वो आम का फल लेकर अपने महल आ गए । राजा दोनों पत्नियों से बराबर प्रेम करते थे । इसलिए राजा ने फल को आधा आधा काटकर दोनों पत्नियों को खिला दिया । कुछ समय बाद दोनों रानियों के गर्भ से आधे आधे पुत्र हुए । आधा हिस्सा एक पत्नी के गर्भ से आधा दूसरी से । यह देख दोनों रानियां डर गयी। दोनों ने आधे आधे पुत्र को एक जंगल में फिंकवा दिया।
उसी समय उस जंगल से एक जरा नामक राक्षसी जा रही थी । उसने मांस के उन दोनों लोथड़ों को देखा और उसने दोनों को उठा लिया । जैसे ही वे दोनों लोथड़ों को पास में लाई वे दोनों मांस के टुकड़े आपस में जुड़ गए । जुड़ते ही वह बालक गर्जना करने लगा । यह देख जरा घबरा गई और उसको लेकर काशी नरेश बृहद्रथ के पास पहुंची । पर महल के अंदर जाने से पहले जरा ने अपना रूप बदल लिया । वह एक सुन्दर रूपवती कन्या बन गयी।
राक्षसी जरा की उत्पति
महल के अंदर आकर उसने उस बालक को काशी नरेश को सौंपते हुए बोली हे राजन यह तुम्हारा ही पुत्र है । ब्रह्मऋषि के वरदान से तुम्हारी दोनों पत्नियों की गर्भ से इसका जन्म हुआ है । तुम्हारे दासियों ने इस बालक को जंगल में फेंक दिया था । मैंने इसकी रक्षा की । बालक को देखकर कर काशी नरेश के हर्ष की सीमा ना रही । उसने कन्या रुपी राक्षसी से पूछा हे कल्याणी तुम कौन हो मुझे बताओ । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है की तुम इच्छानुसार विचरनेवाली वाली कोई देवी हो । तब उस कन्या ने काशी नरेश को बताया की।
ब्रह्मकन्या थी जरा
हे राजन ! मेरा नाम जरा है। मैं इच्छानुसार रूप धारण करने वाली एक राक्षसी हूँ । तुम्हारे घर में पूजित हो सुखपूर्वक रहती चली आयी हूँ । हे राजन कहने को तो में राक्षसी हूँ परन्तु पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने गृहदेवी के नाम से मेरी सृष्टि की थी । उन्होंने दानवो के विनाश के लिए मुझे नियुक्त किया था । कालांतर में एक श्राप के कारण में राक्षसी बन गयी । किन्तु मेरे पास दिव्य रूप धारण करने की शक्ति रह गई । और मैं आज भी पूजी जाती हूँ।
जो कोई अपनी घर की दिवार पर मुझे अनेक पुत्रो सहित स्त्री के रूप में भक्तिपूर्वक समर्पित करता है | उसके घर में सदा वृद्धि होती है । मुझमे सुमेरु पर्वत को भी निगल जाने की शक्ति है । फिर इस बच्चे को खा जाना कौन सी बड़ी बात है । किन्तु तुम्हारे घर में जो मेरी भलीभांति पूजा होती आयी है । उसी से संतुष्ट होकर मैंने यह बालक तुम्हे समर्पित किया है। राजन को ये कहकर जरा राक्षसी उसी समय वहां से अंतर्ध्यान हो गयी । महाभारत के इस प्रसंग के बाद जरा का कहीं भी वर्णन नहीं मिलता । ऐसा माना जाता है की जरासंध के जन्म के साथ ही जरा को राक्षस योनि से मुक्ति मिल गयी और वो अंतर्ध्यान हो गयी ।