दर्शको हिन्दुओं के धर्मग्रन्थ महाभारत में जहाँ जीवन से कई बातों का वर्णन किया गया है वही इसमें कई रोचक कथाओं का भी उल्लेख मिलता है। ये तो सभी जानते हैं की महाभारत के युद्ध में वासुदेव कृष्ण अपने सखा अर्जुन के सारथी बने थे। उन्होंने युद्ध के पहले दिन अर्जुन के युद्ध के लिए मना करने पर गीता का ज्ञान दिया था। और ऐसा भी माना जाता है की श्री कृष्ण के कारण ही पांडवों को महाभारत के युद्ध में विजय मिली थी। लेकिन दर्शकों महाभारत युद्ध के दौरान एक ऐसा समय भी आया जब श्री कृष्ण कर्ण के डर से अचानक कुरुक्षेत्र मैदान से भाग खड़े हुए। दर्शकों इस वीडियो में हम आपको बताएँगे की आखिर ऐसा क्या हुआ था जिसकी वजह से कुरुक्षेत्र के मैदान से श्री कृष्ण कर्ण को देखकर अचानक भाग खड़े हुए।
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ये कथा उस दिन की है जब कुंती पुत्र अर्जुन ने शिखंडी की सहायता से पितामह भीष्म को कुरुक्षेत्र के मैदान में बाणो की शय्या पर लिटा दिया। पितामह भीष्म के युद्ध के मैदान से हटने के बाद उस दिन पहली बार सूर्य पुत्र कर्ण ने युद्ध के मैदान में प्रवेश किया था।क्यूंकि भीष्म पितामह ने अपने ध्वज तले कर्ण को युद्ध करने से यह कहते हुए मना कर दिया था की तुम एक सूत पुत्र हो और जब तक मैं युद्ध के मैदान में रहूँगा तब तक कोई भी सूत मेरे ध्वज तले युद्ध नहीं कर सकता।
गंगा पुत्र भीष्म के बाणो की शय्या पर लेटने के बाद कर्ण ने युद्ध के मैदान में आते ही पाण्डवों की सेना का विनाश करने लगा जिससे उनकी सेना में हाहाकार मच गया। कर्ण ने युद्ध के मैदान में आते ही ये जता दिया की उसके रहते कौरव इतनी जल्दी हार नहीं मानने वाले है। अपने युद्ध कौशल से कर्ण जीत का पलड़ा कौरवों की ओर झुका दिया। उधर अपनी सेना का विनाश देखकर पांडव चिंतित हो उठे। तभी श्री कृष्ण की नजर कर्ण पर पड़ी ,श्री कृष्ण ने देखा की कर्ण दिव्यअस्त्रों के आवाहन के लिए मंत्रोचार कर रहा है और वह दिव्यास्त्र धीरे धीरे प्रकट होता जा रहा है। इसके बाद श्री कृष्ण अर्जुन को सावधान कर रथ को दक्षिण दिशा की ओर तेजी से भगाने लगे ।अचानक श्री कृष्ण को रथ लेकर भागता देख अर्जुन हैरान हो गए और उनसे भागने का कारण पुछा की हे सखा मैं एक योद्धा हूँ और आप अचानक युद्ध के मैदान से कर्ण को देखकर क्यों भाग रहे हैं। अर्जुन की बातें सुनकर वासुदेव कृष्ण ने कहा हे अर्जुन धर्म की स्थापना के लिए तुम्हारा जीवित रहना आवश्यक है और तुम मुझे सबसे प्रिय भी हो। इसलिए मैं तुम्हे खोना नहीं चाहता। अर्जुन कृष्ण की ये बात समझ नहीं पाए ।
और श्री कृष्ण से बोले हे नारायण आपकी बात मेरे समझ में नहीं आई। तब श्री कृष्ण ने कहा -अर्जुन कर्ण दिव्यास्त्र का आवाहन कर रहा है और उसका लक्ष्य तुम हो। तुम्हारे ही वध के मंतव्य से वह इंद्र की दी हुई शक्ति का आवाहन कर रहा है। इसलिए मैं तुम्हे युद्ध के कर्ण से इतनी दूर ले आया हूँ। इंद्र क इस शक्ति का कोई काट नहीं है। इस शक्ति से जिस किसी पर प्रहार किया जायेगा उसकी मृत्यु निश्चित है। यह सुनकर अर्जुन चिंतित हो जाता है लेकिन कृष्ण मुस्कुराते हुए कहते हैं की तुम चिंता ना करो पार्थ मैंने कर्ण के इस दिव्यशक्ति की काट खोज ली है। बस हमें एक ऐसे योद्धा की तलाश करनी है जो तुम्हे इस शक्ति से बचा सके। इतना कहकर वो अपने रथ को भीम की तरफ लेकर चल पड़ते हैं। तभी सूर्यास्त होने के कारण युद्ध समाप्ति का शंखनाद हो जाता है। कृष्ण भीम के पास पहुंचते हैं और कहते हैं तुम धर्म की स्थापना के लिए इतना महत्वपूर्ण युद्ध लड़ रहे हो इस इसलिए अब समय आ गया है की तुम अपने पुत्र घटोत्कच को कुरुक्षेत्र के मैदान में पहुँचने का आदेश दो। कृष्णा की बात सुनकर भीम अपने पुत्र घटोत्कच को युद्ध के मैदान में आने का आदेश देता है। अगले दिन घटोत्कच रणभूमि में आ पहुंचता है। युद्ध के बिच मैदान में घटोत्कच दैत्य को देखकर कौरव की सेना में हाहाकार मच जाता है।
कौरव सेना के बड़े-बड़े महारथी के अस्त्र शस्त्र का घटोत्कच पर कोई भी प्रभाव नही हो रहा था। यह देखकर कौरवों के सेनापति गुरु द्रोण कर्ण के पास जाते हैं और उसे अपनी शक्ति से घटोत्कच का वध करने का आदेश देते हैं लेकिन कर्ण मना कर देता है और कहता है की आचार्य इस शक्ति का प्रयोग केवल एक बार ही किया जा सकता है इसलिए इस शक्ति को मैंने अर्जुन के वध के लिए बचाकर रखा है। यह सुन आचार्य द्रोण क्रोधित हो जाते हैं और कर्ण से कहते हैं अगर तुमने इंद्र की इस शक्ति से घटोत्कच का अंत नहीं करते हो तो कौरव सेना का कोई भी व्यक्ति जीवित नहीं रह पायेगा ,तुम भी नहीं। इसलिए मैं कौरव सेना का सेनापति होने के कारण मैं तुम्हे आदेश देता हूँ की तुम इसी समय घटोत्कच का अंत करो। अपने सेनापति का आदेश मानते हुए कर्ण उस शक्ति से घटोत्कच का अंत कर देता है। यह देखकर सभी पांडव दुखी हो जाते हैं लेकिन श्री कृष्ण मुस्कुराने लगते हैं। पांडव के पूछने पर श्री कृष्ण कहते हैं की अर्जुन के जीवित रहने के घटोत्कच का मरना जरूरी था और यही इसका प्रारब्ध भी था।
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