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पिता की मृत्यु के बाद पुत्र के लिए करने लायक कार्य: The Divine Tales

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पिता की मृत्यु के बाद पुत्र के लिए करने लायक कार्य

पिता की मृत्यु के बाद पुत्र के लिए करने लायक कार्य:

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पिता की मृत्यु के बाद पुत्र के लिए करने लायक कार्य: दर्शकों जैसा की हम सभी जानते हैं की मृत्यु के पश्चात् हिन्दू धर्म में मृत शरीर का दाहसंस्कार किया जाता है और उसके बाद दस दिनों तक मृतक के निमित पिण्डदान भी किया जाता है। गरुड़ पुराण की माने तो मृत्यु के बाद मृतक के निमित किये गए पिंडदान से मृतका आत्मा के शरीर का निर्माण होता है और वह आसानी से यमलोक तक की यात्रा पूरी कर लेता है। मित्रों आपने गौर किया होगा की हिन्दुधर्म में अधिकतर श्राद्ध कर्म पुत्रों द्वारा ही किया जाता और आज की वीडियो में हम आपको यही बताने जा रहे हैं पिता की मृत्यु के बाद पुत्र को क्या क्या करना चाहिए। तो चलिए अब बिना किसी देरी के आज की ये कथा शुरू करते हैं।

नमस्कार दर्शकों THE DIVINE TALES पर आपका एक बार फिर से स्वागत है।

मित्रों मृत्यु के बाद पुत्र को क्या क्या करना चाहिए उसे जानने से पहले ये जानना आवश्यक है दशगात्र विधान क्या है क्योंकि गरुड़ पुराण में भगवान विष्णु ने कहा है की दशगात्रविधि को धारण करने से सत्पुत्र पितृ-ऋण से मुक्त हो जाता है। इस विधान को पूरा करते समय मृतक के पुत्र को चाहिए कि वह अपने पिता के मरने पर शोक का परित्याग कर दे। तत्पश्चात धैर्य धारण कर सात्विक भाव से पिता का पिण्डदान आदि कर्म करें। इस विधान को पूरा करते समय पुत्र को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए की उसकी आँखों से आंसुओं का एक बूँद भी बाहर ना निकले। क्योंकि पुत्र अथवा बान्धवों के द्वारा दशगात्र विधान के दौरान किये गये अश्रुपात को विवश होकर पिता रूपी प्रेत को उसका पान करना पड़ता है। भगवान विष्णु कहते हैं कि हे पक्षीराज पुत्र को चाहिए कि वह दशगात्र विधि के दौरान निरर्थक शोक कर के रोये नहीं। क्योंकि यदि कोई भी पुत्र हजारों वर्ष रात-दिन शोक करता रहे, तो भी उसके मृतक पिता वापस नहीं आ सकते। हे गरुड़ ये तो तुम भी जानते ही हो कि पृथ्वीलोक पर जिसकी उत्पत्ति हुई है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और जिसकी मृ्त्यु हुई है उसका जन्म भी निश्चित है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को जन्म-मृत्यु के विषय में शोक नहीं करना चाहिए। ऎसा कोई दैवी अथवा मानवीय उपाय नहीं है, जिसके द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ व्यक्ति पुन: लौटकर यहाँ सके।

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यदि ऐसा संभव होता तो मेरे ही मनुष्य रुपी अवतार राम और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे दिव्य मनुष्य भी कभी पितृ शोक से ग्रसित नहीं होते। इसलिए पिता अथवा अपनों की मृत्यु के पुत्र अथवा मनुष्य को यह जान लेना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के साथ हमेशा रहना संभव नहीं है। जब अपने शरीर के साथ भी जीवात्मा का सार्वकालिक संबंध संभव नहीं है तो फिर अन्य परिजनों की तो बात ही क्या? हे गरुड़ जिस प्रकार यात्री यात्रा करते समय छाया का आश्रय लेकर विश्राम करता है और फिर अपने पथ पर आगे की ओर बढ़ जाता है उसी प्राणी इस संसार में जन्म लेता है और अपने कर्मों को भोगकर निश्चित समय के बाद अपने गन्तव्य को चला जाता है अर्थात मृत्युलोक को त्याग देता है। इसलिए अज्ञान से होने वाले शोक का परित्याग कर पुत्र को अपने पिता की क्रिया करनी चाहिए।जिससे उसके पिता को मोक्ष मिल सके।

इसके बाद गरुड़ जी भगवान विष्णु से पूछते हैं कि हे नारायण आपने जो बताया वह प्राणियों के लिए बड़ा ही कल्याणकारी है परन्तु हे भगवन कृपया कर यह तो बताइये कि अगर किसी मनुष्य को पुत्र नहीं है तो उसके लिए कौन इस विधान पो पूर्ण कर सकता है। तब भगवान विष्णु कहते हैं कि हे गरुड़ यदि किसी मनुष्य को पुत्र नहीं है तो पुत्र के आभाव में पत्नी और पत्नी के अभाव में सहोदर भाई को तथा सहोदर भाई के अभाव में ब्राह्मण दशगात्र विधान की क्रिया को पूर्ण कर सकता है। इसके आलावा पुत्रहीन व्यक्ति के मरने पर उसके बड़े अथवा छोटे भाई के पुत्रों या पौत्रों के द्वारा दशगात्र आदि कार्य कर सकता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि एक पिता से उत्पन्न होने वाले भाईयों में यदि एक भी पुत्रवान हो तो उसी पुत्र से सभी भाई पुत्रवान हो जाते हैं। ,

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यदि एक पुरुष की बहुत-सी पत्नियों में कोई एक पुत्रवती हो जाए तो उस एक ही पुत्र से वे सभी पुत्रवती हो जाती हैं। सभी भाई पुत्रहीन हों तो उनका मित्र पिण्डदान करे अथवा सभी के अभाव में पुरोहित को ही क्रिया करनी चाहिए। क्रिया का लोप नहीं करना चाहिए। यदि कोई स्त्री अथवा पुरुष अपने इष्ट-मित्र की और्ध्वदैहिक क्रिया करता है तो अनाथ प्रेत का संस्कार करने से उसे कोटियज्ञ का फल प्राप्त होता है।

इसके बाद भगवान विष्णु पक्षीराज गरुड़ से कहते हैं कि हे गरुड़ पिता का दशगात्रादि कर्म पुत्र को करना चाहिए, किंतु यदि ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु हो जाए तो अति स्नेह होने पर भी पिता उसकी दशगात्रादि क्रिया न करे। बहुत-से पुत्रों के रहने पर भी दशगात्र, सपिण्डन तथा अन्य षोडश श्राद्ध एक ही पुत्र को करना चाहिए। इतना ही नहीं यदि पुत्रों के बिच पैतृक संपत्ति का बँटवारा भी हो गया हो तो भी दशगात्र, सपिण्डन और षोडश श्राद्ध एक को ही करना चाहिए

दशगात्र विधि के दौरान ज्येष्ठ पुत्र को चाहिए कि वह एक समय ही भोजन करे, भूमि पर ही सोये तथा ब्रह्मचर्य धारण करके इस विधान को पूर्ण करे। तभी प्रेत रुपी पिता के आत्मा को मुक्ति मिलती है। हे गरुड़ जो पुत्र अपने पिता के निमित विधिपूर्वक इस विधान को पूर्ण करता है उसे वही फल प्राप्त होता है जो पृथ्वी की सात बार परिक्रमा करने के पश्चात् प्राप्त होता है। दशगात्र से लेकर पिता की वार्षिक श्राद्ध क्रिया करने वाला पुत्र गया श्राद्ध का फल प्राप्त करता है।

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दशगात्र के दौरान पुत्र को चाहिए की वह कूप, तालाब, बगीचा, तीर्थ अथवा देवालय के प्रांगण में जाकर बिना मन्त्र के स्नान करे और वृक्ष के मूल में दक्षिणा की ओर वेदी बनाकर उसे गोबर से लीपे। उस वेदी में पत्ते पर कुश से बने हुए ब्राह्मण को स्थापित करके पाद्यादि से उसका पूजन करें और पूजन के बाद उसे प्रणाम करे। इसके पश्चात पिण्द प्रदान करने के लिए कुश का आसन रखकर उसके ऊपर नाम-गोत्र का उच्चारण करते हुए पके हुए चावल अथवा जौ से बने हुए पिण्ड को प्रदान करे फिर चन्दन और भृंगराज का पुष्प अर्पित करें। तत्पश्चात धूप-दीप, नैवेद्य, ताम्बूल – पान) तथा दक्षिणा समर्पित करें। तदनन्तर अन्न, वस्त्र, जल, द्रव्य अथवा अन्य जो भी वस्तु ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण करके मृत प्राणी को दी जाती है, उससे उसे अनन्त फल प्राप्त होता है। इसलिए प्रथम दिन से लेकर सपिण्डीकरण के पूर्व स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण करना चाहिए

दशगात्र के पहले दिन विधिपूर्वक जिस अन्न का पिण्ड दिया जाता है, उसी अन्न से विधिपूर्वक नौ दिन तक पुत्र को पिण्डदान करना चाहिए। फिर नौंवे दिन सभी सपिण्डीजनों को मृत प्राणी के स्वर्ग की कामना करना चाहिए और घर के बाहर स्नान करके दूब एवं लावा लेकर स्त्रियों को आगे करके मृत प्राणी के घर जाकर उससे कहे कि “दूर्वा के समान आपके कुल की वृद्धि हो तथा लावा के समान आपका कुल विकसित हो” – ऎसा कह करके दूर्वासमन्वित लावा को उसके घर में चारों ओर बिखेर देना चाहिए।फिर दसवें दिन मांस से पिण्डदान करना चाहिए, किंतु कलियुग में मांस से पिण्डदान शास्त्रत: निषिद्ध होने के कारण उड़द से पिण्डदान करना चाहिए। दसवें दिन क्षौरकर्म और बन्धु-बान्धवों को मुण्डन कराना चाहिए। क्रिया करने वाले पुत्र को भी पुन: मुण्डन कराना चाहिए

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इसके आलावा दस दिन तक एक एक विद्वान् को प्रतिदिन मिष्टान्न भोजन कराना चाहिए और हाथ जोड़कर भगवान विष्णु का ध्यान करके प्रेत की मुक्ति के लिए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। फिर स्नान करके घर जाकर गो को भोजन देने के उपरान्त भोजन करना चाहिए।

तो मित्रों पिता की मृत्यु के बाद यदि पुत्र द्वारा इन विधियों का पालन करते हुए किया जाता है तो मृतक की आत्मा को जल्द ही मुक्ति मिल जाती। तो दर्शकों उम्मीद करता हूँ की आपको हमारी ये वीडियो और कथा पसंद आई होगी अगर पसंद आई हो तो इसे ज्यादा से ज्यादा लाइक और शेयर करें और अगर आप पहली बार हमारे चैनल पर वीडियो देख रहें हैं तो ऐसी ही पौराणिक जानकारी के लिए इसे अभी सब्सक्राइब कर लें। फिलहाल गरुड़ पुराण की ये कथा यहीं समाप्त होती है।अब हमें इजाजत दें आपका बहुत बहुत शुक्रिया।

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