देशभर में भगवान महादेव के कई प्रसिद्ध मंदिर स्थापित हैं। जिनसे जुड़ी कई रोचक कथाएं भी सुनने को मिलती हैं। भोलेभंडारी का ऐसा ही एक मंदिर बिहार के मधुबनी ज़िले के भवानीपुर गांव में स्थित है, जो उगना महादेव व उग्रनाथ मंदिर के नाम से काफी प्रसिद्ध है। ऐसी लोकमान्यता है कि इस मंदिर में भगवान शिव ने स्वयं मैथिली भाषा के महाकवि विद्यापति के घर नौकरी की थी।
महाकवि विद्यापति हिंदी साहित्य की भक्ति परंपरा के प्रमुख कवियों में से एक हैं, जिन्हें मैथिली के सर्वोपरि कवि के रूप में जाना जाता हैं। वे भगवान शिव के बहुत बड़े भक्त हुआ करते थे। उन्होंने भगवान शिव पर अनेकानेक गीतों की रचना की है। मान्यताओं के अनुसार, जगतव्यापी भगवान शिव विद्यापति की भक्ति व रचनाओं से बेहद प्रसन्न होकर स्वयं एक दिन वेश बदलकर उनके पास चले आए थे। उनके साथ रहने के लिए भगवान शिव विद्यापति के घर नौकर तक बनने के लिए तैयार थे। उन्होंने अपना नाम उगना बताया था। दरअसल कवि विद्यापति आर्थिक रूप से सबल नहीं थे, इसलिए उन्होंने उगना यानि भगवान शिव को नौकरी पर रखने से पहले मना कर दिया। मगर फिर शिवजी के कहने पर ही सिर्फ दो वक्त के भोजन पर उन्हें रखने के लिए विद्यापति तैयार हो गए थे।
ऐसी कथा है कि जब एक दिन विद्यापति राजा के दरबार में जा रहे थे, तो तेज़ गर्मी व धूप से विद्यापति का गला सूखने लगा, मगर आस-पास जल नहीं था। इस पर साथ चल रहे विद्यापति ने उगना (शिवजी) से जल लाने के लिए कहा। तब शिव ने थोड़ा दूर जाकर अपनी जटा खोली व एक लौटा गंगाजल ले आए। जल पीते ही विद्यापति को गंगाजल का स्वाद आया, उन्होंने सोचा कि इस वन के बीच यह जल कहां से आया। इसके बाद उन्हें संदेह हुआ कि कहीं उगना स्वयं भगवान शिव ही तो नहीं हैं। उन्होंने शिव के चरण पकड़ लिए तो शिव को अपने वास्तविक स्वरूप में आना पड़ा। इसके बाद शिवजी ने महाकवि विद्यापति के साथ रहने की इच्छा जताई और उन्हें बताया कि वह उगना बनकर ही साथ रहेंगे। उनके वास्तविक रूप का किसी को पता नहीं चलना चाहिए।
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इस पर विद्यापति ने भगवान शिव की सारी बातें मान लीं, लेकिन एक दिन उगना द्वारा किसी गलती पर कवि की पत्नी शिवजी को चूल्हे की जलती लकड़ी से पीटने लग गई। उसी समय विद्यापति वहां आ गए और उनके मुख से निकल गया कि यह तो साक्षात भगवान शिव हैं, और तुम इन्हें मार रही हो। मगर विद्यापति के मुख से जैसे ही यह बात निकली तो भगवान शिव अंर्तध्यान हो गए। इसके बाद अपनी भूल पर पछताते हुए कवि विद्यापति वनों में शिवजी को खोजने लगे। अपने प्रिय भक्त की ऐसी दशा देखकर भगवान उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें समझाया कि मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रह सकता। परंतु उगना के रूप में जो तुम्हारे साथ रहा उसके प्रतीक चिन्ह के रूप में अब मैं शिवलिंग के रूप में तुम्हारे पास विराजमान रहूंगा। उसके बाद से ही उस स्थान पर स्वयंभू शिवलिंग प्रकट हो गया। इस समय जो आप मंदिर देखते हैं उसका निर्माण साल 1932 में हुआ है। इसके अलावा बताया जाता है कि 1934 के भूकंप में मंदिर को कोई भी नुकसान नहीं आया था। हालांकि आज मंदिर का परिसर काफी भव्य बना दिया गया है।