भगवान विष्णु के अवतार माने जानेवाले सुदर्शन चक्रधारी कृष्ण महाभारत युद्ध के समय अर्जुन के सारथी बने थे। उन्होंने खुद अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया | जब यह बात अर्जुन को पता चली तो उसे आश्चर्य के साथ साथ ग्लानि भी हुई थी।अर्जुन मन ही मन सोचने लगे “युद्ध में श्री कृष्ण अगर मेरे सारथी होंगे तो मैं कैसे स्वंय नारायण को आदेश दे पाउँगा।” यही सोच कर अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा, “हे प्रभु हम पांचों भाइयों के लिए तो आपका आशीर्वाद ही काफी है फिर आप मेरा सारथी क्यों बनाना चाहते हैं?”अर्जुन की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण मुस्कुराने लगे और बोले, “हे पार्थ समय आने पर इस बात का पता तुम्हे खुद चल जायेगा।”
कौरव और पांडव
जब महाभारत युद्ध होना निश्चित हो गया तब कौरव और पांडव दोनों अपने मित्रों सम्बन्धियों को अपने पक्ष में लाने में लग गए।इसी कड़ी में पांडवों की ओर से अर्जुन और कौरवों की तरफ से दुर्योधन श्री कृष्ण के पास पहुंचे। तब श्री कृष्ण ने दोनों से कहा, “आप दोनों मेरे सम्बन्धी हो इसलिए मैं दोनो को कुछ न कुछ अवश्य दूंगा।एक तरफ मेरी पूरी नारायणी सेना होगी और दूसरी तरफ में निहथा अकेला। मैं इस युद्ध में अस्त्र नहीं उठाऊंगा।”यह सुन अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को चुना और दुर्योधन नारायणी सेना को पाकर खुश हो गया। उसने यही सोचा की युद्ध में श्री कृष्ण अकेले क्या कर पाएंगे वो भी बिना अस्त्र के।
सारथी रूप में श्री कृष्ण
दुर्योधन नारायणी सेना के साथ वहां से निकल पड़ा और श्री कृष्ण अर्जुन के साथ हो गए । इसके बाद कौरव और पांडव युद्ध की तैयारी में जुट गए । युद्ध शुरू होने से पहले श्री कृष्ण की आज्ञा से अर्जुन ने पहले देवी दुर्गा से आशीर्वाद लिया । फिर महावीर हनुमान को रथ के ध्वज पर विराजमान होने को कहा । जब युद्ध शुरू होने का दिन आया तो श्री कृष्ण एक सारथी की भांति अर्जुन के शिविर से निकलने से पहले रथ को पूरी तरह तैयार करके खड़े थे। अर्जुन जब शिविर से अपने शस्त्रों के साथ युद्ध करने निकले तो श्री कृष्ण ने पहले अर्जुन को रथ पर चढ़ाया फिर खुद चढ़े । अर्जुन के आदेश पाते ही रथ को लेकर युद्ध भूमि की ओर निकल पड़े।
कुरुक्षेत्र का दृश्य और गीता उपदेश
कुरुक्षेत्र पहुँच कर जब अर्जुन ने देखा की उसके सामने पितामह भीष्म,गुरु द्रोणाचार्य,गुरु कृपाचार्य जैसे अपने खड़े हैं उसका हाथ कांपने लगा और उसने अपना गांडीव निचे रख दिया। फिर श्री कृष्ण से बोला, ” हे प्रभु मैं इन से युद्ध नहीं कर सकता।” तब भगवान् श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और अपने विराट रूप के दर्शन दिये । तब जाकर अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हुए।
अर्जुन के युद्ध के लिए तैयार होते ही दोनों ओर से शंखनाद हुआ और युद्ध शुरू हो गया। सूर्यास्त होते ही जब युद्ध विराम हुआ तो श्री कृष्ण अर्जुन को लेकर रथ हांकते हुए शिविर की ओर निकल पड़े । शिविर पहुँच कर श्री कृष्ण पहले खुद रथ से निचे उतरे और फिर अर्जुन को रथ से निचे उतारा । इसी तरह रोज सूर्योदय होते ही श्री कृष्ण रथ को युद्ध के लिए तैयार कर शिविर के प्रवेश द्वार पर अर्जुन की प्रतीक्षा करते थे। अर्जुन आते ही उनको रथ में चढ़ाते फिर खुद चढ़ते और कुरुक्षेत्र की ओर निकल पड़ते।
युद्ध का ग्यारहवां दिन
महाभारत युद्ध के ग्यारहवें दिन जब कर्ण कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के लिए आया तो उसका सामना अर्जुन से हुआ। दोनों में युद्ध होने लगा। एक ओर अर्जुन का बाण जब कर्ण के रथ पर लगता तो वह रथ समेत सैकड़ों हाथ पीछे चला जाता। वही कर्ण के बाण के प्रहार से अर्जुन का रथ पांच हाथ ही पीछे जाता । यह देख हर बार अर्जुन के सारथी श्री कृष्ण उसकी प्रशंसा करते । कृष्ण की मुख से बार बार कर्ण की प्रशंसा सुनकर अर्जुन को क्रोध आ गया और उसने कृष्ण से पूछा- “हे प्रभु आप मेरी प्रशंसा करने के बजाय कर्ण की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? तब श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा , “हे पार्थ तुम्हारे रथ पर महावीर हनुमान और स्वंय में विराजमान हूँ फिर भी कर्ण के बाणों के प्रहार से पीछे चला जाता है। इसलिए कर्ण प्रशंसा करने योग्य है।”
युद्ध का अंतिम दिन
इसी तरह युद्ध चलता रहा। युद्ध के अठारवे दिन भगवान कृष्ण सदा की तरह रथ से अर्जुन से पहले नहीं उतरे। अर्जुन से पहले उतरने को कहा यह सुनकर पहले तो अर्जुन को आश्चर्य हुआ क्यूंकि युद्ध के बाद सदा श्री कृष्ण खुद पहले रथ से उतरते फिर अर्जुन को उतारते थे। श्री कृष्ण के आदेशानुसार अर्जुन पहले रथ से नीचे उतर आये। फिर श्री कृष्ण नीचे उतरे और अर्जुन को रथ से दूर ले गए । दोनों के थोड़े दूर जाने पर रथ में आग लग गई और वह जलकर भस्म हो गया।
यह देख अर्जुन को आश्चर्य हुआ की अनेक महारथियों का अंत करनेवाला यह रथ आज पलभर में कैसे नष्ट हो गया। उसने श्री कृष्ण से इसका कारण पूछा । श्री कृष्ण ने कहा, “हे अर्जुन यह रथ तो बहुत पहले ही नष्ट हो चुका था। इस रथ की आयु तभी समाप्त हो गई थी जब पितामह भीष्म ने इस पर अपने दिव्यास्त्रों का प्रहार किया था। इसके पश्चात इसकी आयु फिर तब क्षीण हुई, जब इस पर द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महारथियों ने अपने अपने दिव्यास्त्रों से प्रहार किया था। उसके पश्चात ये रथ तो मेरे संकल्प से चल रहा था।” तब अर्जुन को इस बात का ज्ञान हुआ की युद्ध के शुरू होने से पहले क्यों वासुदेव खुद आगे बढ़कर उनके सारथी बने थे।