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श्री कृष्ण ने कैसे दूर किया बाणासुर का अहंकार

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दर्शकों हिन्दू धर्म शास्त्रों की माने तो जब जब इस धरती पर धर्म का लोप होने लगता है या फिर अधर्म अपना पांव तेजी से पसारने लगता है तो स्वंय हरि विष्णु किसी ना किसी रूप में अवतरित होकर उन अधर्मियों का नाश कर पुनः धर्म की स्थापना करते हैं। इसी वजह से जब द्वापर युग में धरतीलोक पर धर्म का नाश होने लगा तो भगवान विष्णु, श्री कृष्ण के रूप में अवतरित हुए। वैसे तो विष्णु जी के इस अवतार को महाभारत के सूत्रधार के रूप में जाना जाता है। परन्तु महाभारत के आलावा भी श्री हरि विष्णु ने अपने इस अवतार में कई लीलाएं की जिसके बारे बहुत ही काम लोग जानते हैं। कृष्णावतार में भगवान विष्णु ने कई दैत्यों, दानवों और राक्षसों से युद्ध किया और उसका नाश किया परन्तु इस एपिसोड में हम आपको एक ऐसी कथा के बारे में बताने जा रहा हूँ जिसमे श्री कृष्ण ने एक दैत्य से सिर्फ उसके अहंकार को दूर करने के लिए युद्ध किया। तो आइये विस्तार से जानते हैं इस कथा के बारे में।

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हिन्दू धर्म ग्रंथों में वर्णित कथा के अनुसार पौराणिक काल में दानवीर दैत्यराज बलि हुआ करते थे। बलि के सबसे बड़े पुत्र का नाम बाणासुर था। बड़े होकर बाणासुर ने भगवान शंकर की बड़ी कठिन तपस्या की।कुछ समय पश्चात् भगवान् शंकर उसकी घोर तपस्या से प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हुए और उससे कहा तुम्हे सहस्त्र बाहु होने का वरदान देता हूँ, इसके अलावा अगर तुम्हे और कोई वरदान मांगना है तो मुझसे मांग सकते हो। तब बाणासुर ने भगवान् शंकर से कहा की हे प्रभु मेरी इच्छा है की आप मेरे द्वार की रखवाली करें। यह सुनकर भगवान् शंकर को बहुत बहुत क्रोध आया लेकिन वे वचन दे चुके थे इसलिए बाद में मान गए और उसके द्वार की रखवाली करने लगे। उसके बाद शंकर जी से मिले वरदान के कारण बाणासुर अति अहंकारी हो गया। उसके बल और अहंकार के कारण कोई भी उससे युद्ध नहीं करता।

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इसी तरह बहुत समय बीत जाने के बाद भी जब उससे किसी ने युद्ध नहीं किया तो वह एक दिन भगवान शंकर के पास जाकर बोला हे प्रभु ! मैंने लम्बे समय से किसी युद्ध नहीं किया है क्यूंकि कोई भी मुझसे युद्ध नहीं करना चाहता इसलिए मुझे युद्ध करने की प्रबल इच्छा हो रही है। अतः मेरी इच्छा है की आप ह मुझसे युद्ध करें। उसकी अहंकारपूर्ण बातें सुनकर भगवान शंकर क्रोधित हो गए किन्तु बाणासुर उनका परमभक्त था इसलिये अपने क्रोध को पीकर उन्होंने बाणासुर से कहा रे मूर्ख! तुझसे युद्ध करके तेरे अहंकार को चूर-चूर करने वाला उत्पन्न हो चुका है। यह सुनकर बाणासुर भगवान शंकर से पूछने लगा हे प्रभु मुझे जल्दी से बताइये की वो शत्रु कौन है और वो मुझसे कब युद्ध करेगा। तब भगवान् शंकर ने कहा जब किसी आने से तेरे महल की ध्वजा गिर जाये तब समझ लेना कि तेरा शत्रु आ चुका है।यह सुनकर बाणासुर सुर अति प्रसन्न हुआ और महल को लौट गया। 

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उधर कुछ समय के बाद वाणासुर की पुत्री उषा ने एक रात स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उस पर मोहित हो गई। फिर सुबह उठकर उसने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया जिसे योगबल में महारत हासिल था। अपनी सखी की बात सुनकर चित्रलेखा ने योगबल से अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया। फिर पूछा क्या तुमने इसी को स्वप्न में देखा था ? पहले तो चित्र को देखकर उषा जम सी गयी और फिर बोली, हाँ, यही वो चितचोर है जिसे मैंने रात में अपने स्वप्न में देखा था। सखी मैं अब इनके बिना नहीं रह सकती। जितनी जल्दी हो सके मुझे इनसे मिलवाने का प्रयत्न करो। सखी की बात सुनकर चित्रलेखा उसी समय द्वारिका गयी और सोते हुये अनिरुद्ध को पलंग सहित उठाकर उषा के महल ले आयी।

उधर यह खबर जब उषा को मिली तो वह दौड़ी-दौड़ी अनिरुद्ध के पास आई और उस पलंग के पास बैठकर उसे एकटक निहारने लगी। कुछ समय बाद जब अनिरुद्ध की आँखें खुली तो उसने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक सुंदर कन्या बैठी हुई उसे निहार रही है। फिर अनिरुद्ध ने उसे झकझोरते हुए पूछा की तुम कौन हो और मैं इस समय कहाँ हूँ। तब उषा ने उसे बताया की वह बाणासुर की पुत्री है और उसको पति रूप में पाने की कामना रखती है। उसके बाद निरुद्ध भी उषा की सुंदरता को देखकर मोहित हो गये और उसी के महल में उषा के साथ रहने लगे।

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परतुं कुछ समय बाद महल के पहरेदारों को सन्देह होने लगा की राजकुमारी महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा है। फिर महल के पहरेदारों ने यह बात वाणासुर को बताया। पहरेदारों की बात सुनकर बाणासुर उषा के महल की जाने लगा उसी समय उसकी नजर महल की ध्वजा पर गयी जो गिरी हुई थी। ध्वजा को गिरा हुआ देखकर बाणासुर समझ गया की उसका कोई शत्रु उषा के महल में प्रवेश कर गया है। फिर वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर उषा के महल में पहुँचा। वहां पहुंचकर उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलोना एक पुरुष बैठा हुआ है। यह देखकर बाणासुर ने क्रोधित हो गया और अनिरुद्ध को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठा कर वाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। फिर वाणासुर और अनिरुद्ध में घोर युद्ध होने लगा। जब वाणासुर ने देखा कि अनिरुद्ध किसी भी प्रकार से उसके काबू में नहीं आ रहा है तो उसने नागपाश से उन्हें बाँधकर बन्दी बना लिया।

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इधर द्वारका नगरी में श्री कृष्ण और बलराम सहित सभी अनिरुद्ध को खोजने में लगे हुए थे। उसी समय देवर्षि नारद वहां पहुंचे और अनिरुद्ध का सारा वृत्तांत श्री कृष्ण को बताया। देवर्षि नारद की बात सुनकर श्री कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, सात्यिकी सहित सभी वीर नारायणी सेना के साथ वाणासुर के नगर शोणितपुर पर आक्रमण करने निकल पड़े। वहां पहुंचकर वे सभी उद्यान, बुर्ज,शोणितपुर के सुरक्षा चौकियों को नष्ट करने लगे। उधर आक्रमण की सूचना जब बाणासुर को लगा तो वह भी अपनी सेना को साथ लेकर महल के बाहर आ गया। उसके बाद बलराम जी कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण राक्षसों से युद्ध करने लगे और श्री कृष्ण वाणासुर के सामने आ डटे। फिर दोनों सेनाओं के बिच घनघोर युद्ध चीड़ गया चरों ओर बाणो की वर्षा होने लगी। कुछ देर बाद बलराम ने कुम्भाण्ड और कूपकर्ण को मार डाला।

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उधर जब काफी देर तक युद्ध करने के बाद बाणासुर को लगने लगा की वो श्रीकृष्ण को नहीं हरा सकता तो उसने अंत में भगवन शंकर को याद किया। बाणासुर की पुकार सुनकर पहले तो भगवान शिव ने अपने गणों की सेना को बाणासुर की सहायता के लिए भेजा परन्तु जब  श्रीकृष्ण और श्रीबलराम के सामने उन्हें हार का मुह देखना पड़ा तो अंत में अपने भक्त की रक्षा के लिए स्वयं भगवान शंकर रणभूमि आ गए। और फिर भगवान शिव ने श्री कृष्ण से युद्धभूमि से वापस जाने को कहा परन्तु श्रीकृष्ण किसी भी परिस्थिति में युद्धभूमि से पीछे हटने को तैयार नहीं हुए। तब विवश होकर अंत में भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से उनपर वार कर दिया। उसके बाद श्री कृष्ण और भगवान् शिव में घोर युद्ध होने लगा। श्रीकृष्ण के बाणों से शिव की सेना कांपने लगी और वहां से भाग गई।

यह देखकर शंकर जी ने श्रीकृष्ण से विनती की हे नारायण मेरे साथ साथ सारे देवगण आपके चरणों मे पूर्णरूप से समर्पित हैं इसलिए मैं अपने शस्रों का त्याग करता हूं,लेकिन स्वामी मैं इस समय अपने वचनो से बंधा हुआ हूँ इसलिए बाणासुर को दिया वचन तोडकर मै युद्धभूमि से तो हट नही सकता। परन्तु एक उपाय बताता हूँ। आप मुझपर जृम्भणास्त्र का प्रयोग करें जिसका मै प्रतिकार नही करूँगा। उससे कुछ देर तक मै सो जाउँगा। उसके बाद श्रीकृष्ण ने वैसे ही किया। भगवान् शंकर जृम्भणास्त्र लगने की वजह से मूर्छित हो गए तब श्रीकृष्ण पुनः बाणासुर के साथ युद्ध करने लगे। यह देख बाणासुर भी अति क्रोध में आकर उनपर टूट पड़ा।

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फिर अंत में श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र निकाला और बाणासुर की भुजाएं काटनी प्रारंभ कर दी। श्रीकृष्ण ने बाणासुर की चार बाजू छोड़कर बाकी सारी भुजाएं काट डाली। उसी समय भगवान शंकर मूर्छा से जाग उठे और उन्होंने बाणासुर से कहा अरे मूर्ख, ये भगवान श्रीकृष्ण हैं इनके सामने तू अपनी उद्दंडता दिखाना छोड दे वरना तुझे मेरे भी क्रोध का सामना करना पडेगा। फिर भगवान शंकर ने श्रीकृष्ण से विनती की, हे नारायण आप तो भक्तवत्शल हैं,अपने भक्तों की ईच्छा अवश्य पूर्ण करते हैं। मेरी आपसे विनती है कि आप इसके प्राण न लें।उसके बाद भगवान शंकर की बात मानते हुए श्रीकृष्ण ने बाणासुर को मारने का विचार त्याग दिया। यह देखकर बाणासुर श्रीकृष्ण के चरणों में जा गिरा और उनसे क्षमा मांगने लगा। श्रीकृष्ण ने वाणासुर को क्षमादान दिया और अनिरुद्ध के साथ ऊषा का विवाह संपन्न हुआ।

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