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रावण और जटायु का युद्ध

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रावण और जटायु का युद्ध

दर्शकों बाल्मीकि रामायण के अरण्यकाण्ड में जटायु से सम्बंधित एक कथा पढ़ने को मिलता है जिसमे बताया गया है की जटायु कौन थे और और वह किस प्रकार माता सीता को रावण के चंगुल से बचाने के लिए रावण से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। ये कथा उस समय की है जब राम अपनी पत्नी सीता के कहने पर कपट-मृग मारीच को मारने के लिये गये और लक्ष्मण भी सीता के कटुवाक्य से प्रभावित होकर राम को खोजने के लिये निकल पड़े। दोनों भाइयों के चले जाने के बाद आश्रम को सूना देखकर लंका के राक्षस राजा रावण ने सीता का हरण कर लिया और बलपूर्वक उन्हें रथ में बैठाकर आकाश मार्ग से लंका की ओर चल दिया। सीताजी ने रावण की पकड़ से छूटने का पूरा प्रयत्न करने किया, किंतु असफल रहने पर करुण विलाप करने लगीं। उनके विलाप को सुनकर जटायु ने रावण को ललकारा।

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फिर रावण से कहा-हे दशग्रीव ! मैं सदैव से सेवाधर्म में लगा हुआ हूँ और सत्य पर आरूढ़ हूँ। मेरा नाम जटायु है और मैं गिद्धों का महाबलवान राजा हूँ। जो सब लोकों के राजा है,जो इंद्र और वरुण के तुल्य हैं और जो प्राणी  मात्र की भलाई में लगे रहते हैं उन्हें त्रिलोकीनाथ दशरथ नंदन श्रीरामचन्द्रजी की यह यशस्विनी बरारोहा धर्मपत्नी सीता है,जिसे तुम हर कर लिए जाते हो।अतः तुम पराई स्त्री के हरण करने की नीच बुद्धि को त्याग दो।जब महाबली श्रीराम ने तुम्हारे अधिकृत देश में अथवा पुर में तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया,तब तुम उनके प्रति यह अपराध कार्य क्यों कर रहे हो। यदि कहो की शूर्पणखा के पीछे जनस्थान वासी खरादि का वध कर श्रीरामचन्द्र जी पहले ही मर्यादा भंग कर चुके है तो तुम्ही बतलाओ की वास्तव में श्रीरामचन्द्रजी का इसमें क्या दोष है।

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जो तुम उन लोकनाथ की भार्या को हर कर लिए जाते हो। हे रावण ! तुम तुरंत सीता को छोड़ दो। नहीं तो कहीं ऐसा न हो की जिस प्रकार इंद्र ने अपने वज्र से वृत्रासुर को भस्म किया था,उसी प्रकार कहीं श्रीराम तुझे भी अपने अग्नितुल्य नेत्र से भस्म कर डालें।

हे रावण ! मुझे उत्पन्न हुए साठ हजार वर्ष बीत चुके हैं और मैं अपने बाप-दादों के परंपरागत प्राप्त राज्य का पालन यथावत करता हूँ। यद्यपि मैं बूढ़ा हूँ और तुम युवा हो,रथ पर सवार हो,कवचधारी हो और धनुषबाण लिए हुए हो। तथापि तुम सीता को लेकर यहाँ से कुशलतापूर्वक नहीं जा सकते। मेरी आँखों के सामने तुम सीता को नहीं ले जा सकते। हे रावण यदि तुझे शूरवीर होने का दावा है तो दो घडी यहाँ रूककर मुझसे युद्ध कर। फिर देखना की मैं तुझे मारकर पृथ्वी पर उसी प्रकार लिटाता हूँ की नहीं जिस प्रकार पहले खर मर कर पृथ्वी पर लोट चूका है। हे रावण ! जिन्होंने अनेक बार युद्ध में दैत्य और दानवों को मारा है। वे चिरधारी श्रीराम संग्राम में क्या तेरा वध करने में देर लगाएंगे। मैं क्या करूँ वे दोनों राजकुमार वन में दूर निकल गए हैं।

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हे नीच ! तू भी उनसे डर कर,निस्संदेह शीघ्र मारा जायेगा,किन्तु मेरे जीते जी तू कमलनयनी श्रीराम की प्यारी पटरानी सीता को नहीं ले जाने पावेगा। क्योंकि मैं तो उन महात्मा श्रीराम की और दशरथ की भलाई जान देकर भी अवश्य करूँगा। हे दशग्रीव रावण खड़ा रह।हे निशाचर मैं तेरा अपने बल के अनुरूप यथोचित आतिथ्य कर पके फल की तरह तुझे इस उत्तम रथ से निचे गिराए देता हूँ।उधर जटायु के इन वचनो को सुनकर रावण के नेत्र क्रोध से  लाल पड़ गए। और वह जटायु पर बड़े वेग से दौड़ा। इसके बाद रावण और जटायु में एक महायुद्ध शुरू हो गया। सबसे पहले  रावण ने महाबली जटायु के ऊपर पैनो नोकों वाले नालोक और विकीर्ण नामक बड़े भयंकर तीरों की वर्ष कर उसे ढक दिया। परन्तु पक्षिश्वर गिद्ध ने उस युद्ध में रावण के सब  तीरों और अस्त्रों  प्रहारों को सह लिया। और जटायु ने अपने पैने नखवाले दोनों पैरों से रावण के शरीर को क्षत विक्षत कर डाला। तब  क्रोध में भरकर दशग्रीव रावण ने जटायु का वध करने के लिए बड़े भयंकर कालदण्ड की तरह दस बाण निकाले और उन भयंकर बाणो से जटायु का शरीर विदीर्ण कर दिया। जटायु ने उन बाणों की तो कुछ परवाह न की किन्तु जब देखा की रावण के रथ में बैठी जानकी नेत्रों से आंसू बहा रही है तब वह रावण की और झपटे। और उस महातेजस्वी पक्षीराज ने मारे लातों के रावण का तीरों सहित धनुष तोड़ डाला।

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यह देख रावण और भी क्रोधित हो गया और उसने दूसरा धनुष उठाया और जटायु पर सैकड़ों सहस्त्रों बाणों की वर्षा की। परन्तु महातेजस्वी जटायु ने अपने दोनों पंखों  से शरजाल को खंडित कर अपने दोनों पंजों से रावण के उस दूसरे धनुष को भी तोड़ डाला।  इतना ही नहीं बल्कि अपने पंखों के प्रहार से महातेजस्वी जटायु ने रावण का अग्नि की तरह चमचमाता कवच भी तोड़ फोड़ डाला। फिर महाबली पक्षीराज जटायु ने अपनी चोंच के प्रहारों से रावण के सारथी का सिर भी काट डाला। इस प्रकार परम बल संपन्न पक्षीराज द्वारा जब रावण का धनुष तोडा गया रथ नष्ट किया गया और घोड़े तथा सारथी मार डाले गए तब रावण सीता को अपनी गोदी में लिए हुए भूमि पर कूद पड़ा। रथ नष्ट हो जाने के कारण रावण को पृथ्वी पर गिरा हुआ देख समस्त प्राणी वाह-वाह कह कर जटायु की प्रशंसा करने लगे। उधर पक्षीराज जटायु को बुढ़ापे के कारण थका जान रावण अत्यंत प्रसन्न हुआ और सीता को ले फिर आकाशमार्ग से चल दिया। रावण को प्रसन्न होते हुए और जानकी को लेकर जाते हुए देख जटायु ने बड़े वेग से उसका पीछा किया। और उस महातेजस्वी जटायु ने रावण का मार्ग रोक लिया। यहाँ देख रावण पहले से भी अधिक क्रोधित हो उठा और उसने तलवार से उनके पंख काट डाले। जटायु मरणासन्न होकर भूमि पर गिर पड़े और रावण सीता जी को लेकर लंका की ओर चला गया।

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उसके कुछ समय बाद जब राम लक्ष्मण के साथ सीता की खोजते हुए वहां पहुंचे तो मार्ग में उन्होंने विशाल पर्वताकार शरीर वाले जटायु को देखा। उसे देख कर राम ने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण  मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इसी जटायु ने सीता को खा डाला है। मैं अभी इसे यमलोक भेजता हूँ। ऐसा कह कर अत्यन्त क्रोधित राम ने अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई और जटायु को मारने के लिये आगे बढ़े। राम को अपनी ओर आते देख जटायु बोले अच्छा हुआ कि तुम आ गये। सीता को लंका का राजा रावण हर कर दक्षिण दिशा की ओर ले गया है और उसी ने मेरे पंखों को काट कर मुझे बुरी तरह से घायल कर दिया है।सीता की पुकार सुन कर मैंनें उसकी सहायता के लिये रावण से युद्ध भी किया। ये मेरे द्वारा तोड़े हुए रावण के धनुष उसके बाण हैं। इधर उसके विमान का टूटा हुआ भाग भी पड़ा है। यह रावण का सारथि भी मरा हुआ पड़ा है। परन्तु उस महाबली राक्षस ने मुझे मार-मार कर मेरी यह दशा कर दी। वह रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। मैंने तुम्हारे दर्शनों के लिये ही अब तक अपने प्राणों को रोक रखा था। अब मुझे अन्तिम विदा दो।

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जटायु के मुख से ऐसे बातें सुनकर भगवान श्रीराम के नेत्र भर आये। उन्होंने जटायु से कहा-  मैं आपके शरीर को अजर-अमर तथा स्वस्थ कर देता हूँ, आप अभी संसार में रहें।तब जटायु ने कहा हे राम! मृत्यु के समय तुम्हारा नाम मुख से निकल जाने पर अधम प्राणी भी मुक्त हो जाता है। आज तो साक्षात तुम स्वयं मेरे पास हो। अब मेरे जीवित रहने से कोई लाभ नहीं है।उसके बाद श्रीराम ने जटायु के शरीर को अपनी गोद में रख लिया। उन्होंने पक्षिराज के शरीर की धूल को अपनी जटाओं से साफ़ किया। कुछ समय बाद जटायु ने उनके मुख-कमल का दर्शन करते हुए उनकी गोद में अपने प्राण त्याग दिए।

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