दोस्तों यह तो हम सभी जानते हैं की सभी प्राणी जन्म लेने से पहले अपनी माँ के गर्भ में रहता है लेकिन क्या आपने कभी सोचा है की आखिर किस पापकर्म के कारण प्राणी गर्भ में प्रविष्ट करता है और उसे क्यों गर्भ में कई कष्ट भोगना पड़ता है। अगर नहीं तो इस पोस्ट को पूरा अवश्य पढ़े। इतना ही इस पोस्ट में हम आपको ये भी बताने जा रहें हैं की किसी की पत्नी क्यों युवावस्था में ही मर जाती है और पिता के रहते पुत्र क्यों मृत्यु को प्राप्त करता है जिसक वर्णनं गर्भ गीता में किया गया है।
गर्भ गीता के पहले अध्याय में इस बात का उल्लेख किया गया है की अर्जुन ने भगवान् श्री कृष्ण से एक दिन सवाल किया कि हे मधुसूदन ! आप मुझे ये बताने की कृपा करें कि प्राणी अपनी माँ के गर्भी में आता है तो वह अपने किस गुण-दोष के कारण आता है। प्राणी जन्म से पहले गर्भ में कष्ट पाता है और जन्म के समय भी असहनीय पीड़ा पाता है। इसके बाद भी वह रोग-पीड़ा के कारण दुःख पाता है। उसे बुढ़ापे में अनेक रोग घेर लेते हैं और उसकी मृत्यु हो जाती है। अतः हे भगवन ! कृपा करके मुझे यह बताएं कि वे कौन से कार्य हैं,जिनसे मनुष्य जन्म- मृत्यु के दुखों से बच सकता है।
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तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के सवाल का जवाब देते हुए कहा कि हे धनुर्धारी ! जन्म-मृत्यु का बंधन तो सभी प्राणियों की नियति है यानि जिस किसी प्राणी ने इस मृत्युलोक में जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और यह सदा से ही संसार में क्रियान्वित रहा हैं। जो प्राणी संसार में नष्ट होने वाले पदार्थों से प्रेम करते हैं,या जो प्राणी संसार की नश्वर वस्तुओं की इच्छा रखते हैंया फिर जो प्राणी संसार की दौलत पाने की तो कामना करता है,परन्तु भगवान भक्ति से विमुख रहता है। इसलिए वह बार-बार अनेक योनियों में पैदा होकर जीवन-मरण और गर्भ के दुःख भोगता है।
भगवान कृष्ण के मुख से ऐसी बातें सुनकर अर्जुन ने फिर उनसे पूछा कि हे माधव ! संसार की मोह माया से मुक्ति तो संभव नहीं है। मन पांच विकारों के वश में है। वे पांच विकार-काम,क्रोध,लोभ,मोह और अहंकार है। यह मन मस्त हाथी की तरह है। माया मन को हर लेती है। इन पांच विकारों में अहंकार सबसे प्रबल है। यह प्राणी को नर्क में ले जाता है। हे जनार्दन ! इस मदमस्त हाथी को कैसे वश में किया जाये अर्थात मनुष्य को कौन-से प्रयत्न करने चाहिए,जिनसे मन को भक्ति में लगाया जा सके।
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तब श्री कृष्ण बोले के पाण्डुपुत्र जिस प्रकार मस्त हाथी को वश में करने के लिए महावत अंकुश का प्रयोग करता है,उसी प्रकार मन को काबू में करने के लिए ज्ञान रुपी अंकुश का प्रयोग आवश्यक है। भक्ति और ज्ञान अभ्यास करने पर ही प्राप्त होते हैं। अहंकार करने से जीवन नर्क बन जाता है।
श्री कृष की जवाब से संतुष्ट होकर अर्जुन ने पुनः उनसे सवाल किय की हे जनार्दन ! कुछ प्राणी तो आपकी भक्ति करने के लिए वन-जंगलों में जाकर रमते हैं और कुछ सांसारिक मोह-माया छोड़कर जगह-जगह भटकते फिरते हैं,अतः हे प्रभु ! इस बारे में कैसे पता चले कि आपकी भक्ति किस प्रकार मिल सकती है ?बताब अर्जुन के इस सवाल का जवाब देते हुए श्री कृष्ण ने कहा की हे कौन्तेय ! जो प्राणी मुझे खोजने के लिए जंगलों में फिरते है वे सन्यासी व वैरागी कहलाते हैं। वे सिर पर जटा बांधते हैं तथा भस्म लगाते है,लेकिन फिर भी वे मेरे दर्शन नहीं कर पाते,क्योंकि उनमे भक्ति व प्रेम नहीं है। वे अहंकार में डूबे हुए है। तप या वैराग्य का अहम् तो मेरी भक्ति पाने में बाधा डालता है। मैं शुद्ध मन से भक्ति करने वाले सतत अभ्यासी जो काम,क्रॉध।मोह,लोभ और अहंकार से परे हैं,उन्हें ही मैं दर्शन देता हूँ।
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तब अर्जुन ने श्री कृष्णा से पुनः पुछा की हे वासुदेव मनुष्य इन पांच विकारों से ग्रस्त होकर अपने सांसारिक जीवन को नष्ट कर लेता है।इसलिए हे माधव ! मुझे यह बताइये की वह कौन सा पाप है,जिसके कारण किसी की स्त्री असमय ही मर जाती है,इतना ही नहीं पिता के रहते किसी के पुत्र क्यों मर जाते हैं और किस पाप के कारण व्यक्ति नपुंसक हो जाता है ?
अर्जुन के मुख से ये प्रश्न सुनकर श्री कृष्ण मुस्कुराते हुए बोले हे अर्जुन ! जो व्यक्ति किसी से कर्ज लेकर उसे नहीं चुकाता,वह इस पाप कर्म से अपनी पत्नी को खो देता है। उसी प्रकार जो किसी की अमानत को नहीं लौटाता,उसके पुत्र मर जाते हैं। जो किसी व्यक्ति को सहायता करने का वचन देकर भी समय पर उसकी सहायता नहीं करता,वह नपुंसक हो जाता है। ये सभी बड़े भयंकर पाप हैं।
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भगवान् श्री कृष्ण के मुख से ऐसी दिव्य वचनो को सुनाने के बाद अर्जुन का जिज्ञासा कम नहीं हुआ और उन्होंने पुनः श्री कृष्ण एक प्रश्न पुछा ,हे कृपानिधान ! मनुष्य किस पाप के कारण हमेशा रोगी रहता है और किस पाप के कारण बोझा ढोने वाले गधे का जन्म पाता है ? स्त्री तथा गधे का जन्म प्राणी को किस पाप कर्म के कारण मिलता है ? और मनुष्य किस दुष्कर्म के फलस्वरूप जघन्य पशु बनता है ? तब श्री ने अर्जुन से कहा कि हे पार्थ !जो मनुष्य अणि कन्या को बेच देता है,वह हमेशा रोगी रहता है। जो अभक्ष्य भोजन करता है और विषय विकार के लिए मदिरापान करता है गधे का जन्म पाता है। जो झूठी गवाही देनेवाला होता है,वह स्त्री का जन्म पाता है। जो भोजन बनाकर पहले स्वंय खा लेते हैं बाद में भगवान को दान करते हैं,वे बिल्ली,सूकर की योनि को प्राप्त करते हैं।
उधर जैसे जैसे श्री कृष्णा अर्जुन के प्रश्नो का जवाब देते जा रहे थे वैसे वैसे अर्जुन के मन में जिज्ञासा बढाती जा रही थी और इसी जिज्ञासा के कारण अर्जुन ने फिर श्री कृष्ण से पूछे की हे कृपानिधान ! इस संसार में जिन प्राणियों को आपने धन-दौलत प्रदानं की है और उत्तम वाहन दिए हैं,उन्होंने कौन से पुण्य किये हैं ? तब श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया की हे धनञ्जय ! जो उत्तम रीती से पात्र को स्वर्ण दान करता है वह उत्तम वाहन और धन-धान्य प्राप्त करता है। जो भगवान् को साक्षी मानकर कन्यादान करते हैं वे उत्तम पुरुष का जन्म पाते हैं। यह सुन अर्जुन ने भगवन से पुछा की हे दयानिधे ! इस संसार में आपने किसी को तो इतना सुन्दर बनाया है और किसी को इतना कुरूप ! किसी को धनवान बनाया,किसी को निर्धन ! सो ऐसा क्यों है ? तब श्री ने अर्जुन के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा हे अर्जुन ! जिन प्राणियों ने अन्नदान किया है,उनका स्वरुप सुन्दर है और जिन्होंने विद्यादान किया है वे विद्वान् हैं। फिर भी पुरुष का रूप-स्वरुप नहीं बल्कि गुण महत्वूर्ण है। जो संतों की सेवा करते हैं,वे धनवान व पुत्रवान होते हैं।
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उधर श्री कृष्ण के मुख से अपने सवालों का जवाब सुनकर अर्जुन कुछ देर के लिए शांत हो गए तब भगवान श्री कृष्ण से बोले हे पार्थ क्या तुम्हारी जिज्ञासा शांत हो गई या और भी कुछ पूछना है तब अर्जुन ने कहा कि हे प्रभु अभी भी मेरे मन में कई सवाल है जिसका उत्तर मैं आपके मुख से जानना छठा हूँ। तब श्री कृष्ण ने कहा चलो बताओ तुम और क्या जानना चाहते कहते हो। तब अर्जुन ने कहा की हे मधुसूदन ! कृपया कर मुझे पहले यह बताएं कि मनुष्य धन और सांसारिक सुखों के प्रति इतना मोह क्यों रखता है ? तब श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा की हे कौन्तेय ! यदि प्राणी मेरी कृपा से वंचित हो जाए तो वह धन-दौलत आदि से मोह करने लगता है। ये सब नाशवान हैं। विवेकी प्राणी इनसे दूर रहता है। जो व्यक्ति सांसारिक मोह त्यागकर पवित्र स्थलों के दर्शन करके मेरी निष्काम भक्ति करता है,वह राजा समान सुख और ज्ञान प्राप्त करता है। सभी वस्तुएं नाशवान हैं,केवल मेरी भक्ति ही ऐसी है जिसका नाश नहीं होता। भगवान् की मुख से ऐसी बातें सुनकर उनके चहरे पर मकान आ गयी और उन्होंने फिर श्री कृष्ण से पुछा कि सखा मनुष्यों में शारीरिक रोगों जैसे रक्त विकार,खंड वायु,अंधता तथा पंगुता आदि का क्या कारण है ? ये रोग क्यों होते हैं ? बताने की कृपा करें। तब कृष्ण बोले हे अर्जुन ! जो प्राणी मेरा भक्ति से विमुख होकर माया में लिप्त हो जाते हैं,वे क्रोधी,रक्त विकारी,आलसी,दरिद्र,शील संयम रहित,खंड वायु ,जैसे रोगों से ग्रसित होते हैं। जो स्त्री अपने पतिव्रत धर्म का पालन नहीं करती,वह संयम रहित ज्योतिहीनता जैसे विकारों से ग्रस्त रहती है।
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यह सुन अर्जुन ने फिर श्री कृष्ण से सवाल किया की हे मधुसूदन ! कृपा करके गुरु-दक्षिणा के बारे में भी कुछ बताने का कष्ट करें। मुझे गुरु की महिमा के बारे में भी बताएं। तब श्री ने अर्जुन के इस सवाल का जवाब देते हुए बोले हे धनुर्धारी ! तुम्हारा यह प्रश्न सम्पूर्ण मानव जाति के लिए कल्याणकारी है। तुम धन्य हो और धन्य है तुम्हारी जननी। हे पार्थ ! ब्रह्मचारी और संयमी पुरुष जो ईश्वर भक्ति और परोपकार में लगा हो उसे ही गुरु बनाना चाहिए। अपने गुरु की देख-रेख में ही मेरी पूजा करें। गुरु की कृपा से विमुख प्राणी सप्त ग्राम मारने का पाप भोगता है। ऐसे प्राणी का मुख देखना भी पाप होता है। हे अर्जुन ! सारे संसार के गुरु जगन्नाथ हैं। विद्या का गुरु काशी,चारों वर्णो का गुरु ब्राह्मण,ब्राह्मण का गुरु सन्यासी है। सन्यासी उसे कहते हैं,जो सब कुछ त्यागकर मुझ में रम गया हो,वह ब्राह्मण जगद्गुरु है। जो गुरु का भक्त है,वह मेरा भक्त है। जो गृहस्थ गुरु से विमुख होता है वह चांडाल के समान है। जी जगह मदिरा का भांड हो उस स्थान का गंगा जल भी अपिवत्र होता है।
इसी तरह गुरु से विमुख व्यक्ति का भजन भी अपवित्र होता है। उसके सभी कर्म निष्फल हैं। ऐसा व्यक्ति कूकर,सूकर,गर्दभ,काक इन योनियों को पाता है। वह अजगर सर्प समान आलस्य में डूबा तिरस्कार पाता है। हे कौन्तेय ! गुरु दीक्षा के बिना प्राणी का उद्धार संभव नहीं है। जो गुरु की सेवा करता है,उसको कई अश्वमेध के पुण्य का फल मिलता है। .हे अर्जुन ! जो प्राणी तुम्हारे इस संवाद को पढ़ेंगे और सुनाएंगे वे गर्भ के दुःख से बचेंगे। वे नरक की चौरासी योनियों के झंझट यानि जन्म मरण के चक्र से बचेंगे।भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्दु से इस प्रसंग को अर्जुन ने बड़े ध्यान से सुना। इसी कारण इस पाठ का नाम गर्भ गीता है। इस प्रसंग को पढ़ने और सुनने से व्यक्ति को पुण्य का फल मिलता है तथा उस व्यक्ति पर सदैव भगवान श्री कृष्ण की कृपा बनी रहती है।