मित्रों जैसा कि आप सभी जानते हैं कि महाभारत को हिन्दू धर्म के सबसे पवित्र धर्म ग्रंथों में से एक है जिसमे महाभारत युद्ध से लेकर उसके सभी पत्रों का चरित्र चित्रण भी विस्तार से किया गया है। महाभारत के इन्ही पत्रों में से एक पात्र भीष्म पितामह भी थे जिन्हे वैसे तो धर्म परायण माना जाता है लेकिन फिर भी उन्होंने इस महायुद्ध में अधर्म के पक्ष का साथ दिया उन्होंने ऐसा क्यों किया यह भीष्म पितामह ने खुद ही बताया था परन्तु हम आज जानेंगे भीष्म पितामह के जीवन से जुड़ा वो सबसे बड़ा रहस्य जिसे जानने समझने के लिए हर महाभरत पड़ने वाले की जिज्ञासा सबसे ज्यादा रहती है, आखिर धर्म पर चलने वाले इस महान योद्धा को बाणों की शय्या पर ऐसी दुखद मृत्यु क्यों हुई क्यों करना पड़ा भीष्म को अठारह दिनों तक बाणों की श्या पर अपनी मुक्ति का इंतज़ार |
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महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार युद्ध के दसवें दिन ही भीष्म पितामह अर्जुन के हाथों बाणों की शय्या पर पहुँच गए तह। युद्ध कईं दिन तक और चलता रहा लेकिन भीष्म घायल अवस्था में उसी तरह बाणों पर बने रहे फिर युद्ध समाप्ति के 10 दिन बाद पांडवों सहित श्री कृष्ण पितामह भीष्म से आशीर्वाद लेने पहुंचे श्रीकृष्ण को देख भीष्म पितामह ने उनसे पूछा कि हे वासुदेव कृपया कर मुझे बताइये कि मेरे कौन से कर्म का फल है जो मैं इस तरह अठारह दिनों से बाणो की शय्या पड़ा हुआ हूँ? पितामह की बातें सुनकर पहले तो मधुसूदन मुस्कराये और फिर उन्ही से प्रश्न करने लगे ‘पितामह क्या आपको अपने पूर्व जन्मों का ज्ञान है? इस पर पितामह ने उत्तर दिया ‘हाँ है’, मुझे अपने सौ पूर्व जन्मों का ज्ञान है कि मैंने इन सौ जन्मो में किसी का कभी अहित नहीं किया।
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यह सुनकर श्रीकृष्ण फिर मुस्कराये और बोले पितामह आपने सही कहा कि सौ जन्मो में आपने कभी किसी को कष्ट नहीं दिया लेकिन एक सौ एक वें पूर्वजन्म में जो आपको याद नहीं इस जन्म की तरह ही आपने तब भी एक राजवंश में जन्म लिया था उस जन्म में जब आप युवराज थे तब एक बार आप शिकार खेलकर जंगल से निकल रहे थे तभी आपके घोड़े के अग्रभाग पर एक करकैंटा वृक्ष से नीचे गिरा। आपने उसे अपने बाण से उठाकर पीठ के पीछे फेंक दिया और वह बेरिया के पेड़ अर्थात एक कांटेदार वृक्ष पर जा गिरा जिसकी वजह से बेरिया के कांटे उसकी पीठ में धंस गये क्योंकि वह पीठ के बल ही गिरा था? उसके बाद करकेंटा जितना निकलने की कोशिश करता उतना ही कांटे उसकी पीठ में चुभ जाते और इस प्रकार करकेंटा अठारह दिन तक तड़पता रहा और ईश्वर से यही प्रार्थना करता रहा की जिस तरह से मैं तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त हो रहा हूँ ठीक इसी प्रकार मुझे इस हाल में पहुँचाने वाले युवराज का भी होगा परन्तु पितामह आपके पुण्य कर्म ऐसे थे की आपका पुनर्जन्म बारम्बार राज परिवारों में ही होता रहा और उस करकेंट का श्राप अब तक यथार्त नहीं हो पाया!
इस जन्म में हस्तिनापुर की राज सभा में सबके सामने द्रोपदी का चीर-हरण होता रहा और आप मूक दर्शक बनकर देखते रहे। जबकि आप चाहते तो वह अत्याचार होने से रोक सकते थे आप सक्षम थे लेकिन आपने फिर भी दुर्योधन और दुःशासन को नहीं रोका। इसी कारण पितामह आपके सारे पुण्यकर्म क्षीण हो गये और करकेंटा का ‘श्राप’ आप पर लागू हो गया।
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इसलिए हे गंगा पुत्र जिस अवस्था में आज आप तड़प रहें हैं यह आपके सौ जन्म पूर्व क इस कृत्या का ही फल है। इस मृत्युलोक में जन्म लेने वाले प्रत्येक मनुष्य को अपने कर्मों का फल कभी न कभी भोगना ही पड़ता है! याद रखें की प्रकृति सर्वोपरि है और इसका न्याय आज नहीं तो कल होकर ही रहता है। इसलिए पृथ्वी पर निवास करने वाले प्रत्येक प्राणी व जीव जन्तु को जो भी भोगना पड़ता है वो उसे अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है। इसके अलावा महाभारत में एक और कथा का भी वर्णन मिलता है जिसके अनुसार भीष्म अपने पिछले जन्म में एक वसु थे। आठ वसु भाइयों में से एक ‘द्यु’ नामक वसु ने एक बार वशिष्ठ ऋषि की कामधेनु नाम की दिव्या गाय का हरण कर लिया जिस से क्रोधित होकर वशिष्ठ ऋषि ने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया।
ऋषि के श्राप से घबराकर वसुओं ने महर्षि वशिष्ठजी से क्षमा के लिए प्रार्थना की। जिस पर महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि द्यु को छोड़ अन्य सारे वसु जन्म लेने के तुरंत बाद श्राप से मुक्त हो जाएंगे लेकिन ‘द्यु’ को अपनी करनी का फल जीवनभर भोगना होगा।”इसी द्यु ने अपने अगले जन्म में गंगा की कोख से देवव्रत के रूप में जन्म लिया और देवव्रत ही आगे चलकर अपनी भीषण प्रतिज्ञा के कारण भीष्म कहलाए।
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ऐसा माना जाता है की प्रतिज्ञा लेने के बाद भीष्म ने हस्तिनापुर की गद्दी पर कुरुवंश का शासन बरकरार रखने के लिए कई तरह के अपराध किए थे जो शासन के लिए तो आवश्यक थे परन्तु धर्म परायण भीष्म पितामह के चरित्र के अनुरूप कदापि नहीं थे।
उदाहरण के तौर पर सत्यवती के कहने पर ही भीष्म ने काशी नरेश की 3 पुत्रियों अम्बा अम्बालिका और अम्बिका का अपहरण किया था। बाद में अम्बा को छोड़कर अम्बालिका और अम्बिका का विवाह उन्होंने सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य से करवा दिया था।गांधारी और उनके पिता सुबल की इच्छा के विरुद्ध भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से करवाया था।
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तो मित्रों उम्मीद करता हूँ कि अब आप भी जान गए होंगे की भीष्म पितामह को बाणों की शय्या पर ऐसी मृत्यु क्यों मिली। उम्मीद है आपको आज की हमारी ये कथा पसंद आई होगी |