शिव की लीलाएं अनादि-अनंत है। वे ही इस सृष्टि के सृजक,पालक तथा संहारकर्ता हैं। रूद्र रूप शिव अयोनिज और अजन्मा हैं। वे किसी माता के उदर से जन्म नहीं लेते। हर मन मन्त्र के अंत में रूद्र रूप शिव ही इस सृष्टि का संहार करके महाप्रलय करते हैं। महाप्रलय के पश्चात् ये सृष्टि विलीन हो जाती है।शेष रह जाती है प्रलयकर्ता सदाशिव की ज्योति। उसी सदाशिव की गाथाओं का वर्णन शिवपुराण में किया गया है जिसे लेकर में हाजिर हूँ। शिवपुराण कथा के पहले भाग में हम आपको बताएँगे की शिवपुराण के श्रवण मात्र से ही क्रोध,लोभ,काम,वासना आदि में लगे लोगों को कैसे मुक्ति मिल जाती है।
शिवपुराण वह परम उत्तम शास्त्र जिसका पूर्वकाल में भगवान शिव ने ही प्रवचन किया था। यह कालरूपी सर्प से प्राप्त होनेवाले महान पासका विनाश करनेवाला उत्तम साधन है। गुरुदेव व्यास ने सनत्कुमार मुनि का उपदेश पाकर बड़े आदर से संक्षेप में इस पुराण का प्रतिपादन किया। इस पुराण के प्रणयन का उद्देश्य है-कलयुग में उत्पन्न होनेवाले मनुष्यों के परम हित का साधन।
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शिव पुराण को भूतल पर भगवान शिव का वांग्मय स्वरुप समझना चाहिए और सब प्रकार से इसका सेवन करना चाहिए। इसका पठन और श्रवण सर्वसाधन रूप है। इसे शिव भक्ति पाकर श्रेष्ठतम स्थिति में पहुंचा हुआ मनुष्य शीघ्र ही शिवपद को प्राप्त कर लेता है। इसी तरह इसका प्रेमपूर्वक श्रवण भी सम्पूर्ण मनवांछित फलों को देनेवाला है। भगवान शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके अंत में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है।
यह शिव पुराण नामक ग्रन्थ चौबीस हजार श्लोको से युक्त है। इसकी सात संहिताएं है। मनुष्य को चाहिए की वो भक्ति,ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हो बड़े आदर से इसका श्रवण करे। सात संहिताओं से युक्त यह दिव्य शिवपुराण परब्रह्म परमात्मा के समान विराजमान हैं।और सबसे उत्कृष्ट गति प्रदान करनेवाला है।
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जो निरंतर शिवपुराण को बांचता है अथवा नित्य प्रेम पूर्वक इसका पाठमात्र करता है उस पुण्यात्मा को अंतकाल में भगवान महेश्वर अपना धाम प्रदान करते हैं। जो प्रतिदिन आदरपूर्वक शिवपुराण का पूजन करता है,वह इस संसार में सम्पूर्ण भोगों को भोगकर अंत में भगवान शिव के पद को प्राप्त कर लेता है। जो प्रतिदिन आलस्य रहित हो रेशमी वस्त्र आदि से इस शिवपुराण का सत्कार करता है,वह सदा सुखी होता है। यह शिवपुराण निर्मल तथा भगवान शिव का सर्वस्व है;जो इहलोक और परलोक में भी सुख चाहता हो,उसे आदर के साथ प्रयत्नपूर्वक इसका सेवन करना चाहिए। यह निर्मल एवं उत्तम शिवपुराण धर्म,अर्थ,काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थों को देनेवाला है। अतः सदा प्रेमपूर्वक इसका श्रवण एवं विशेष पाठ करना चाहिए।
इसके पश्चात् मुनि शौनक जी ने कहा सूतजी ! आप धन्य है,परमार्थ तथ्य के ज्ञाता हैं,आप ने कृपा करके हमलोगों को यह दिव्य कथा सुनायी है। भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है,यह बात आज हमने आपकी कृपा से निश्चय पूर्वक समझ ली। परन्तु सूत जी कलियुग में इस कथा के द्वारा कौन कौन से पापी शुद्ध होते हैं ? इस बारे में भी बताइये
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तब सूत जी बोले-मुने ! जो मनुष्य पापी,दुराचारी,खेल तथा काम-क्रोध आदि में निरंतर डूबा रहनेवाला है,वे भी इस पुराण के श्रवण-पठन से अवश्य ही शुद्ध हो जाते हैं। इसी विषय में जानकार मुनि इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं,जिसके श्रवण मात्र से ही पापों का पूर्णतया नाश हो जाता है। जिससे जुडी एक कथा सुनाता हूँ
बहुत पहले की बात है किरातों की नगर में एक ब्राह्मण रहता था,जो ज्ञान में अत्यंत दुर्बल,दरिद्र,रस बेचनेवाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था। वह स्नान,संध्या आदि कर्मो से भ्रष्ट हो गया था और वैश्यवृति में तत्पर रहता था। उसका नाम था देवराज। वह अपने ऊपर विश्वास करने वाले लोगों को ठगा करता था। उसने ब्राह्मणो,क्षत्रियों,वैश्यों,शूद्रों तथा दूसरों को भी अनेक बहानो से मारकर उसका धन हड़प लिया करता था।परन्तु उस पापी का थोड़ा सा भी धन कभी धर्म के काम में नहीं लगा था। वह वैश्यागामी तथा सब प्रकार से आचार भ्रष्ट था।
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एक दिन घूमता-घामता देवयोग से प्रतिष्ठानपुर में जा पहुंचा।वहां उसने एक शिवालय देखा।जहां बहुत से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे। देवराज उस शिवालय में ठहर गया,किन्तु वहां उस ब्राह्मण को ज्वर आ गया। ज्वर के कारण उसे बहुत पीड़ा होने लगी। वहां एक ब्राह्मणदेवता शिवपुराण की कथा सुना रहे थे। ज्वर में पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मण के मुखारबिंदु से निकली हुई उस शिव कथा को निरंतर सुनता रहा। एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यंत पीड़ित होकर चल बसा।यमराज के दूत आये और उसे पाशों से बांधकर बलपूर्वक यमपुरी ले गए।इतने में ही शिवलोक से शिवजी के पार्षद गण आ गए।उनके गौड़ अंग कर्पूर के समान उज्जवल थे,हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे।उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से अक्षादित थे और रुद्राक्ष की मालाएं उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थी।
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वे सब-के-सब क्रोधपूर्वक यमपुरी में गए और यमराज के दूतों को मार-पीटकर,बारम्बार धमकाकर उन्होंने देवराज को उनके चंगुल से छुड़ा लिया। उसके बाद अत्यंत अदभुत विमान पर बिठाकर जब वे शिवदूत कैलाश जाने को उद्यत हुए,उस समय यमपुरी में बड़ा भारी कोलाहल मच गया।उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये।साक्षात् दूसरे रुद्रों के समान प्रतीत होनेवाले उन चारों दूतों को देखकर धर्मज्ञ धर्मराज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञान दृष्टि से देखकर सारा वृतांत जान लिया। उन्होंने भय के कारण भगवान शिव के उन महात्मा दूतों से कोई बात नहीं पूछी,उलटे उन सबकी पूजा एवं प्रार्थना की। तत्पश्चात वे शिवदूत कैलाश को चले गए और वहां पहुंचकर उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर साम्ब शिव के हाथों में दे दिया।