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कर्ण के सबसे शक्तिशाली अस्त्र

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महारथी कर्ण महाभारत युद्ध के एक ऐसे योद्धा थे जिन्हे अपने जीवनकाल में बार-बार अपमानित  होना पड़ा। जन्म लेते ही उन्हें जन्म देने वाली माता ने त्याग दिया।शिक्षा ग्रहण करने जब गुरु द्रोणाचार्य के पास गए तो उन्होंने कर्ण को शूद पुत्र होने के कारण शिक्षा देने से मना कर दिया। तब एक ब्राह्मण का रूप धारण कर भगवान विष्णु के अंशावतार परशुराम से शिक्षा ग्रहण किया। लेकिन वहां भी उन्हें अपमानित ही होना पड़ा। क्यूंकि शिक्षा पूर्ण होने के बाद जब गुरु परशुराम को यह बात पता चली की यह एक ब्राह्मण पुत्र नहीं बल्कि एक शुद पुत्र है तो उन्होंने कर्ण को एक शापित जीवन जीने को विवश कर दिया। लेकिन कर्ण ने कभी हार नहीं मानी और अपने बाहुबल से उन्होंने भारतीय पौराणिक इतिहास में वो ख्याति हासिल की जिसके वो हकदार थे।पाठकों इस लेख में हम आपको कर्ण के सबसे शक्तिशाली अस्त्र के बारे में बताएँगे।

कर्ण के जीवन से जुडी कुछ खास बाते

कर्ण का जीवन

कर्ण महाभारत के वो धर्मनिष्ठ योद्धा थे जिन्होंने अधर्म यानि दुर्योधन की और से यह युद्ध लड़ा था। लेकिन उन्होंने कभी भी युद्ध निति को भंग नहीं किया और नाही कौरव सेना के सेनापति रहते हुए कोई छल होने दिया।इतना ही नहीं कर्ण ने अस्त्र-शस्त्रों का संधान भी धर्म के पथ पर ही किया।पाठकों महारथी कर्ण के पास जो सबसे शक्तिशाली अस्त्र था वह था गुरु पशुराम का दिया हुआ —

विजया धनुष

हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार पौराणिक काल में दिव्यास्त्रों के संधान के लिए दिव्य धनुष की आवश्यकता होती थी। क्यूंकि साधारण धनुष से दिव्यास्त्रों का संधान नहीं किया जा सकता था। कर्ण का यह धनुष भी एक दिव्य धनुष था जिसे उन्हें उनके गुरु परशुराम ने दिया था। दरअसल गुरु द्रोणाचार्य ने जब एक शुद पुत्र होने के कारण कर्ण को शिक्षा देने मना कर दिया तो वो अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा पाने के लिए एक ब्राह्मण पुत्र बनकर गुरु परशुराम के पास पहुंचे। क्यूंकि उन्हें डर था की कहीं शुद पुत्र होने के कारण परशुराम भी उन्हें अपना शिष्य बनाने से मना ना कर दें। ब्राह्मण के वेश में  कर्ण ने परशुराम से अस्त्र-शस्त्रों का ज्ञान  तो प्राप्त कर लिया लेकिन जब कर्ण की शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी की तभी एक दिन उनके गुरु को पता चला की कर्ण किसी ब्राह्मण का पुत्र नहीं बल्कि एक शुद का पुत्र है।

आखिर कर्ण को क्यों मिले इतने श्राप ?

क्रोध में उनके गुरु परशुराम ने कर्ण को श्राप दे दिया की तुमने मुझसे धोखे से शिक्षा प्राप्त की है। इसलिए जब तुम्हे मेरी दी हुई शिक्षा की सबसे ज्यादा जरूरत होगी उस समय तुम सब कुछ भूल जाओगे। परन्तु जब कर्ण ने वेश बदलने का कारण बताया तब  गुरु परशुराम का क्रोध शांत हुआ और उनका मन व्यथित हो उठा। फिर परशुराम ने कर्ण से कहा की हे वत्स मैं दिया हुआ शाप तो वापस नहीं ले सकता लेकिन मैं तुम्हे धनुष रुपी एक कवच देता हूँ।जब तक यह धनुष तुम्हारे हाथ में रहेगा तब तक तीनो लोक का कोई भी योद्धा तुमसे नहीं जीत पायेगा। गुरु परशुराम के इस धनुष का नाम विजया धनुष था। मित्रों कर्ण ने अपने इस धनुष का इस्तेमाल या तो दिव्यास्त्र चलाने के लिए किया या फिर अर्जुन के साथ युद्ध करते वक्त ,बांकी समय वे एक साधारण धनुष से ही कुरुक्षेत्र में युद्ध करते रहे। 

महासर्प अश्वसेन नाग

महाभारत युद्ध के 17वे दिन अर्जुन और कर्ण के बिच युद्ध चल रहा था। तभी कर्ण ने एक बाण अर्जुन पर चलाया जो साधारण बानो से अलग था। बाण को अर्जुन की ओर आता देख भगवान श्री कृष्ण समझ गए की वो बाण नहीं बल्कि बाणरूपी अश्वसेन नाग है। तब उन्होंने अर्जुन को बचाने के लिए अपने पैर से रथ को दबा दिया। भगवान श्री कृष्ण के ऐसा करने से रथ के पहिए जमीन में धंस गए। साथ ही रथ के घोड़े भी झुक गए।  तब वह बाण रूपी अश्वसेन अर्जुन की जगह अर्जुन के सर के मुकुट पर जा लगा।

पूर्वजन्म कर्ण के पाप के कारण कर्ण को अर्जुन के हाथों मरना पड़ा

वार खाली जाने के बाद अश्वसेन कर्ण के तरकस में दुबारा वापस आ गया। और अपने वास्तविक रूप में आकर कर्ण से बोला,हे अंगराज अबकी बार अधिक सावधानी से बाण संधान करना। इस बार अर्जुन का वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीवित रहने न देगा। तब कर्ण ने उससे पूछा की आप कौन हैं और अर्जुन को क्यों मारना चाहते हैं। तब अश्वसेन ने कहा मैं नागराज तक्षक का पुत्र अश्वसेन हूँ । मैं और मेरे माता पिता खांडव वन में रहा करते थे। एक दिन अर्जुन ने उस वन में आग लगा दिजिसके बाद मैं और मेरी माता आग में फंस गये। जिस समय वन में आग लगी थी, उस वक्त मेरे पिता नागराज तक्षक वहां नहीं थे। मुझे आग में फंसता देख मेरी माता मुझे  निगल गयी और मुझे लेकर उड़ चली। परन्तु अर्जुन ने फिर  मेरी माता को अपने बाण से मार गिराया,लेकिन मैं किसी  तरह बच गया। जब  मुझे  यह बात पता चली की मेरी माता को अर्जुन ने मारा है तभी से मैं अर्जुन से बदला लेना चाहत हूँ।और इसी कारण आज मैं बाण का वेश धारण कर आपके तरकश में आ घुसा। उसके बाद कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा हे अश्वसेन मुझे अपनी ही नीति से युद्ध लड़ने दीजिए। आपकी अनीतियुक्त सहायता लेने से अच्छा मुझे हारना स्वीकार  है। ये शब्द सुनते ही कालसर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया। 

इन्द्रास्त या वसावी शक्ति

ये तो सभी जानते हैं की कर्ण जैसा योद्धा अपनी दानवीरता के कारण जाना जाता है। और उसी दानवीरता के कारण उसे इंद्र की वसावी शक्ति प्राप्त हुई थी।यह एक ऐसा अस्त्र था जिसे कोई भी अस्त्र काट नहीं सकता था। दरअसल युद्ध के निश्चित हो जाने के बाद इंद्र देव को अर्जुन की चिंता सताने लगी की कर्ण के कवच-कुण्डल रहते मेरा पुत्र अर्जुन उसे कैसे परास्त कर पायेगा।क्यूंकि वे जानते थे की सूर्यदेव का दिया हुआ कवच-कुण्डल जब तक कर्ण के पास है तब तक उसे कोई नहीं हरा सकता। इसीलिए इंद्रदेव ने छल का सहारा लिया। और एक दिन जब कर्ण सुबह के समय सूर्यदेव को जल अर्पित कर रहे थे तब इंद्रदेव ब्राह्माण का वेश बनाकर उसके पास पहुंचे। और कर्ण से उसका दिव्य कवच कुण्डल मांग लिया।

कर्ण ने श्री कृष्ण से मांगे थे ये 3 वरदान

चुकी सूर्य को अर्घ्य देते समय कर्ण से कोई भी कुछ मांगता तो वे मना नहीं करता था। इसी वजह से उसने ब्राह्माण रुपी इंद्र को अपना कवच-कुण्डल दान में दे दिया। और फिर उस ब्राह्माण से बोले हे ब्राह्मण आप अपने असली रूप में आ जाइये क्यूंकि मैं जानता हूँ की आप देवराज इंद्र हैं। और मैं ये भी जानता था की आज आप मुझसे मेरा कवच कुण्डल दान में मांगने वाले हैं। कर्ण की मुख से ऐसी बातें सुनकर देवराज इंद्र उसी क्षण अपने असली रूप में आगये और बोले-हे कर्ण तुम्हे मेरे बारे में किसने बताया और जब तुम जानते थे तो आज सूर्य को अर्घ्य देने ही क्यों आये।

कर्ण ने कहा हे देवेंद्र मुझे ये सारी बात रात को मेरे पिता सूर्यदेव ने बताई और मुझे अर्घ्य देने से भी मना किया। परन्तु हे देवेंद्र अब आप ही बताइये की मैं अपने धर्म से कैसे विमुख हो सकता था। तब इंद्रदेव ने कहा हे कर्ण तुम महान हो,इस दुनिया में आज तक तुमसे बड़ा दानी ना कभी हुआ है और ना ही पृथ्वी के अंतकाल तक कोई होगा। आज के बाद से तुम महादानवीर कर्ण के नाम से जाने जाओगे।

किसने किया था कर्ण के आठ पुत्रों का वध ?

इसके अलावा मैं तुम्हे अपनी वसावी शक्ति भी देता हूँ जिसका इस्तेमाल तुम एक बार कर सकोगे। इस शक्ति का जिस किसी पर भी संधान करोगे उसे कोई भी शक्ति नहीं बचा सकेगी। इसके बाद देवराज वहां से अंतर्ध्यान हो गए।

जब महाभारत युद्ध शुरू हुआ तो कर्ण ने अपनी यह शक्ति अर्जुन के लिए बचा कर रखी थी लेकिन भगवान श्री कृष्ण ने भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को युद्ध में शामिल कर कर्ण को इंद्र की दी हुई वसावी शक्ति को चलाने को विवश कर दिया।

https://www.youtube.com/watch?v=mYGnWvQ5bkw&t=23s

इन तीनो शक्तियों के अलावा कर्ण के पास आग्नेयास्त्र,पाशुपतास्त्र,रुद्रास्त्र ,ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मशिरास्त्र,ब्रह्माण्ड अस्त्र,भार्गवास्त्र,गरुड़ास्त्र,नागास्त्र,नागपाश अस्त्र जैसे और भी दिव्य अस्त्र थे। जिन्हे मन्त्रों से प्रकट कर संधान किया जाता था। इन अस्त्रों को चलाने के लिए महारथी कर्ण अपने विजया धनुष का इस्तेमाल किया करता था।महाभारत युद्ध में जिस समय अर्जुन ने कर्ण का वध किया उस समय कर्ण के हाथ में वह विजया धनुष नहीं था,अगर उस समय उसके हाथ में वह धनुष होता तो अर्जुन कभी भी उसका वध नहीं कर पाते।

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